ब्रह्मचर्य दर्शन | Brahmacharya Darshan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
249
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)उपक्रम 9
गीता* में कहा गया है, कि जो साधक परमात्म-माव को अधिगत करना
चाहता है, उसे ब्रह्मचयं-ब्रत का पालन करना चाहिए । बिना इसके परमात्म-भाव की
साधना नहीं कौ जा सकती है } क्योकि विषयासक्त मनुष्य का मन बाहर में इन्द्रिय-
जन्य भोगों के जंगल में ही भटकता रहता है, वह् अन्दर की ओर नहीं जाता।
अन्तमूख मन ही ब्रह्मचयं का साधक हो सकता है । विषयोन्मुख मन सदा चञ्चल
बना रहता है ।
शक्ति का सूल स्रोत :
बरह्मचयं, जीवन की साधना है, अमरत्व की साधना है । महापुरुषों ने कहा
है--ब्रह्मचयं जीवन है, वासना मृत्यु है । ब्रह्मचयं अमृत है, वासना विष है । ब्रह्मचयं
अनन्त शान्ति है, अनुपम सुख है । वासना अशांति एवं दुःख का अथाह सागर है ।
ब्रह्मचयं शुद्ध ज्योति है, वासना कालिमा । ब्रह्मचयं ज्ञान-विज्ञान है, वासना भ्रान्ति एवं
अज्ञान । ब्रह्मचयं अजेय शक्ति है, अनन्त बल हैं, वासना जीवन की दुबंलता, कायरता
एवं नपु सकता ।
ब्रहयचयं, दारीर की मूल शक्ति है । जीवन का ओज है। जीवन का तेज
है । ब्रह्मचयं सवप्रथम शरीर को सशक्त बनाता है । वह हमारे मन को मजबूत एवं
स्थिर बनाता है । हमारे जीवन को सहिष्णु एवं सक्षम बनाता है । क्योकि आध्यात्मिक
साधना के लिए शरीर का सक्षम एवं स्वस्थ होना आवश्यक है । वस्तुतः मानसिक एवं
शारीरिक क्षमता आध्यात्मिक साधना की पूवं भूमिका है। जिस ग्यक्तिके मनमें
अपने आपको एकाग्र करने की, विचारों को स्थिर करने की तथा शरीर में कष्टो एवं
परीषहों को सहने की क्षमता नहीं है, आपत्तियों की संतप्त दुपहरी में हँसते हुए आगे
बढ़ने का साहस नहीं है, वह आत्मा की शुद्धे ज्योति का साक्षात्कार नहीं कर सकता ¦
भारतीय संस्कृति का यह् वज्र आघोष रहा है कि-- जिसरदारीरमे बल नहींहै, रावित
नहीं है, क्षमता नहीं है, उसे आत्मा का दर्शन नहीं होता है ।”* सबल शरीर में ही
सबल आत्मा का निवास होता है । इसका तात्पयं इतना ही है कि परीषहों की आँधी
में भी मेर के समान स्थिर रहने वाला सहिष्णु व्यक्ति ही आत्मा के यथाथ॑ स्वरूप को
पहचान सकता है । परन्तु कष्टों से डरकर पथ-भ्रष्ट होने वाला कायर व्यक्ति आत्म-
दरोन नहीं कर सकता ।
अतः आत्म-साधना के लिए सक्षम शरीर आवश्यक है । ओर शरीर को सक्षम
बनाने के लिए ब्रह्मचयं का परिपालन आवश्यक है । क्योंकि मन को, विचारों को,
२ यदिच्छन्तो त्रह्मचर्य चरन्वि-गीता ८।११
३ नायमत्मा बलहीनेन लभ्यः-मुरडकोपनिषद् ३।२।४ ।
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