अनुत्तर योगी तीर्थकर महावीर | Anuttar Yogi Teerthakar Mahavir
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22 MB
कुल पष्ठ :
396
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)५
` ` अन्तिम क्षण तक जागतिक रेश्वयं मे चिद्विनास करते हए राजि
भरतेश्वर, अन्तर्महनं मात्र मे, बिना तय क्लेश के ही केवनी हो गयं अर्हित ।
जीवन्मुक्त । किन्तु मरीचि का यात्रा-पय बहुत कुटिल या । भीतर निरन्तर परम-
स रह कर, उमे म्वर्गो, नरको, पाशव तिर्यचो तक के भीतर मे आन्मान॒भव की
यात्रा करनी थी । नारकी ओर पशु की यातना भौर अन्धता तक से वह गज़रा ।
क्योकि उसे पाणव-गक्ति प्रधान कनिकान का नीथंकर होना था । पशपतिनाथ
होकर, मानवत्व को पणन्व मे उनार कर, देवन्व तक पहुंचाना था ।
उस षार अणशोकवन के क्रीडा-पवनं पर, उसे महसो देवागनामो के
बीच नग्न विचरते देख रहा हूँ ।. कैसा निजन्व अनभव कर रहा हूँ । मेरे
अपनत्व की प्रतिमा । फिर भी कितनी अनभ्य है मल्ले । चाहं नो अगन ही क्षण
बहाँ हो सकता ह, अपनी इन्द्राणियो की बीच । वही मै । पर अशक्य, बीच
मे देश और कान के दुर्नध्य ममद्र पड हुए है । क्योकि अभी इम क्षण मे मरीचि
भी हें, केवन अच्य॒न स्वगे का इन्द्र ही नहीं ।
फिर ब्रह्म स्वर्ग ईणान स्वर्ग, मौघम म्बगे के मकरन्द-मरोवरो म स्नान-
केनियां नन्द्रानस कन्य-ननाओ की छावो म आन्म-विस्मृत एन्द्िक सुखो कौ
मूर्च्छा । फिर जाने कब वार्ड गहरा आघात जागृति स्वयबोघ माहेन्द्र स्वगं से
च्युत होकर. पृथ्वी पर जगत्-प्रसिद्ध भारद्वाज. त्रिदण्ड मे सुशोभित तजोमान
ब्रह्मापि । किन्नु अपणं जान के अभिमानमे फिर भटकन। ण्केन्दरियम्थावरसे
रम निकाय वें जोव-जन्तुजो की असख्यात योनियों तक में भ्रमण ।
देख रहा हं, जान गहा हे यह सब नानाविध सुख-दुखो की अन्तहीन
मवेदन-परम्परा । मूर्छा ओर जागृति कौ इम खना की कडियो को जोढ
नही पाना हूं । मडलाकार चक्रायित चल-चित्रो की इस जीवन-लीला का एक
ही नायक, नाना देग-कान नाना रूप, भाव, वेश में । प्राण का एक निर्बन्ध
श्रवाह ।
मगध देण की राजगृही नगरीके राजा विश्वभूति का पुत्र विश्वनदी ।
पिता अचानक प्रव्रज्या ले निष्क्रमण कर गये । भाविक, भोला, मौन्दर्यानुरागी
यवराज विश्वनन्दी, राज्य की ओर से उदामीन । अपने स्वप्न को पुष्य-
कर डक उद्यान मे रच कर, उसी में अपनी युवरानियो के साथ कऋोडालीन रहता ।
जाना बिशाखभूति राज्यासीन थे उनके मूखें पुत्र विशाखनन्दी को विश्वनन्दी
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