मुक्तिदूत | Mukti Doot

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Mukti Doot by वीरेंद्र कुमार जैन - Virendra Kumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[१ १ ६ [ है | अजनाके लिए समस्त सूष्टि---लता, वृक्ष, पृथ्वी, पशु, पक्षी---सजीव और साकार प्रकृति के अखंड रूप हे। वह स्वय प्रकृति है, इसलिए उन श्रखड रूपोमे रम जाना उसके निसर्गकी आवश्यकता है । हा, वह आकुल है विराटके लिए--उस झालोक-पुरुषके लिए---जों उसका प्रणयी है जो उसका हिर हं । प्रणय श्रौर वात्सल्यकी ्नादिम भावनाश्रोके निराकुल और विदेह प्रदर्शनमे 'प्रणणी' और शिशु को अलग-अलग खोजना और उस सम्बन्धम लौकिक दृष्टिसे तर्क करना चाहे तो आप करे--लेखक सम्मवतया इससे परे हूँ । थो आप दो प्रश्न करें, तो तीन श्रश्त में भी कर सकता ह--वादे वादे जायते तत्व-बोधः । तो लीजिए, बताइये 'मृक्ति-दूत' कौन हं ? पवनजय ? हनुमान ? श्रजना ? प्रहस्त ? पढिये और सोचिये । श >८ >< भुक्ति-टूत'मे रोमास'के प्राय सव श्रग होते हुए भी यह रह गई है प्रधानत एक करुण-कथा । अलग-अलग प्रस्येक पात्र व्यथाका बोभः लिये चला चल रहा हं । कथाकी सार्थकता है श्रन्तिम म्रध्यायकी उन अन्तिम पक्तियोर्म जहा श्रकृति प्‌ ऽ€षमे लीन हो गई, पुरुष प्रकृतिमे व्यक्त हो उठा !' पात्रोम व्याप्त व्यथाके नाना रूपोको सहानुभूति श्लौर सह-वेदनाकी जिस अश्रु-सिक्‍त तूलिकाँसे लेखकने चित्रित किया है उसका चमत्कार पुस्तकके पृष्ठ-पृष्ठपर श्रकित हैँ श्री वीरेन्द्रक्मारकी शैलीकी यह विशेषता हैँ कि वह अत्यन्त सबेदनशील है। पात्रोके मनोमावो म्मौर भावनाझोंके घात-सघातके अनुरूप वह प्रकृतिका चित्र उपस्थित करते जाते हे । लगत्ग है जैसे भ्रन्तरकी गूज जगतमें छा गई है, हृदयकी वेदनाएं चाद, सूरज, फल-फूलोमे रमकर, चित्र बनकर प्रकृतिकी चित्ररालामे भाटगीहो। [१




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