प्रबुद्ध यामुन | Prabuddha Yamun

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Prabuddha Yamun by श्रीदुलारेलाल भार्गव - Shridularelal Bhargav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला अक--दुसरा दृश्य ५ याञ्ुन--जनादेन, चिता न करो । गुरुदव अतत दी दनि । राज वह रगेशसमुनि क यरद, गोष्ठी मे, गए हैं । मह्लि०--पर बछ््ड़ों का वद्दा क्या काम था ? क्या वे भी गोष्ठी में सम्मिलित होंगे ? यामुन--गुरुदेव उन नार्थो को फिर कर छोड जात ९ सृग-शावक तो उन्हें क्षण-भर भी नददीं छाड़ता । मल्लिनाथ दादा, नार्थो पर गुरुदेव सदा द्या-वृष्टि करते रहत दै । उनकी करुणा अपार दे । देखा नहीं, कल साथकाल वह उसे गोद में बिठाए 'झपने दाथ से दूब खिला रहे थे ? रग०--कभा-कमी तो जीच-द्या के 'झागे वह झर्निद्दीत्र 'और संध्योपासन तक भूल जाते हैं । याञुन-सस्य है । एक दिन गुरुदेव अपनी पणे-शाला मे, द्भे-शय्या पर, एक हाय से तो कपिला के बद्ध को थपथपा- केर खुला रहे ये, ओर दुसरे हाथ से सृग-शावक को दूब चरा रदे थे । इतन म जव मेन उन्हें संध्योपासन की सूचना दी, तब उन्होंने धीरे से कहदा--'“ब्रच्चा, ग्रह सेध्योपासन ही तो कर रहा हूँ । प्राणियों के लालन-पालन में सुरे नारायण की लीला प्रत्यक्ष होती है । › यद कदते-दी-कदते उनके प नेत्रो मं यसू छलक श्राए-वाणी गदुगद्‌ द्यो गई ।




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