युग - पुरुष | Yug Purush

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७ वापूका अध्ययन अनवरत . संघर्ष क्या . विना किसी प्रयोजनके.है.१ उसने देखा किं विश्वका विकास हुआ,.प्राणिजगतका. विकास . हुआ, स्वयं पटुता भी मनुष्यताके रूपमें आर्विभूत हुई । ` क्या यदी प्रकृति किसी प्रयोजनकी ओर संकेत नहीं कर रदी है ? वापूकी चृष्टिमें यह भास उठा कि जीवन ओर जगतका प्रवाह एक निश्चित दिदाकी ओर है। मनुष्यता पञ्युतापर, प्रकाद्च अन्धकारपर,.सस्य असत्यपर विजय प्राप्र करे ओर विजयके द्वारा जीवन परम क्ष्यकी अनुभूति करे--यदी रहा है इतिदासका पथ, यही रही है जीवनकी धारा ओर यदी रहा है जगत्‌का अनवरत, अवाध द्रन्द्रस्मक संघपं । असत्यपर सत्यकी विजय, अनीतिपर नीतिकी विजय, अन्धकारपर प्रकाशकी विजय, और अज्ञानपर ज्ञानकी विजय, यह्‌ प्रकृति अटल नैत्तिक विधान है जिसे कायान्वित करनेमे जीचनकी सस्रयो जनता दै । विश्वका हेतु भी यही है किं असत्यपर सत्यकी सत्ता स्थापित हो ओर चेतन इसकी अनुभूति करके अनंत विकासकी अनंत यात्रामे अग्रसर होता . चटे । यह्‌ प्रयोजन जिस व्यक्तिकी दृष्टिमें भासित हो चुका हो उसके आद और उसके प्रयोगकी . कल्पना सहजमें ही को जा सकती है । चापू भक्त है क्योंकि वह सबंत्र एक चेतनघाराकों सष्रिके मूमें स्थित और जीवनकों सिंचित करते देखता है; वह भक्त है. क्योंकि उसे सत्यकी ही सत्ता ऐकान्तिक और अक्षुण्ण दिखाई देती है । वह्‌ संत ओर तपस्वी है क्योकि उसकी दा- निक टृष्टिमे जीवनकी एकमात्र साधना सत्यकी विजयकं हेतु अङ्कुण्ठित गतिसे वदृते जाना है । वह्‌ मानता है किं अन्धकारकी सत्ता भी है। पर उसका प्रकाश द्वारा पराजित होना प्रकृतिका अटल विधान है क्योंकि ऐसा न होना प्रगति और विकासके मूल क्ष्यको दी अस्वीकार कर देना है ॥ म. सनाय अननक नमनो हरि पके ०७० ~




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