हिंदी भाषा और साहित्य | Hindi Bhasha Aur Sahitya

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महावीर प्रसाद द्विवेदी - Mahavir Prasad Dwivedi

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श्यामसुंदर दास - Shyam Sundar Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्राचीन भाषाएँ शहर फी इतनी घ्राचीनना नहीं स्वीकार फरते । कालिदास के 'विक्रमावैशीय' घोटक में विक्तिप्त पुरूरवा की उक्ति में श्रोर रूप दोनें के विचार से कुछ कुछ श्रपमंश की छाया देख पड़ती है, श्रौर इतलिये श्रपम्ंश का काल शौर भी दा सा चर्प पहले चढा जाता है; पर उसमें श्रपय्रश के श्रत्यंत साधारण उक्तण--जैसे, पदांतर्गत 'म' के स्थान में 'वें” धर स्वार्थिक घत्यय 'इन्ल' श्रन्ने तथा 'ड'-न मिलने के कारण उसे भी याकोवी श्रादि चुत से विद्वान पाठांतर या मक्तिप्त मानते हैं। जो कुछ हो, पर यह फहने में कोई संफोच नहीं कि .श्यपश्रंश के यीज इंसा की दूसरी शताग्दी में प्रचलित घाकत में श्रवश्य विद्यमान थे । झारंभ में छपम्रंश शब्द किसी भाषा के लिये नहीं प्रयुक्त होता था। साक्तर लोग निरत्तरों की भाषा के शब्दों को श्रपमंश, या श्रपमापा कहा करते थे। पतंजलि मुनि ने श्रपम्रंश शब्द का प्रयोग महामाप्य में दस प्रकार किया है -झूर्या सो घापशब्दा: सः शब्दाः | परकैंकस्य शब्द्स्य । । गौरित्यस्य गाची गोणी येाता 5पम्शा: ।. श्रर्थात्‌ श्रपशब्द चहुत हैं. शर शब्द थोड़े हैं। पक पक शब्द के बहुत से श्रपम्रंश पाए जाते हैं जैसे-गे। शब्द के गावी, गाणी, गेता, गोपातलिका श्रादि श्पमंश हैं। यदी झप- भ्रेश शब्द से पतंजलि उन शब्दों का श्रहण फरते हैं जो उनके समय में संस्कृत के वदले स्थान स्थान पर बोले जाते थे । ऊपर के श्रवतरण में जिन शपम्रंशों का है, उनमें 'गावी” बैंगठा में 'गाभी* के रूप में झौर 'गोणी” पाली से दोता सिंधी में ज्यों फा व्यों श्रव तक प्रच- लित है । शेप शब्दों का पता श्रन्वेपकां को लगाना चाहिए। 'थाय ध्रपने शब्दों की विशुद्धता के कट्टर पत्तपाती थे । वे पदले श्रपशब्द ही के छिये म्लेच्ठ शब्द का भ्रयोग फरते थे। पतंजलि ने लिखा स्लेच्छितवे नापभापितवे स्लेच्छो ह चा पएएप यद्पशब्दः । शर्थात्‌ स्लेच्छु ८ शपभापण न करना चाहिए, फ्येांकि धपशब्द ही स्लेच्छ हैं। झामर ने इसी घातु से उत्पन्न स्लिप्ट शब्द का शथ “झचिस्प्ट' किया हैं। इससे यह चात सिद्ध होती है कि श्रार्य शुद्ध उच्चारण करके श्रपनी भाषा की रच्ता का चड़ा प्रयल फरते थे; श्ौर ज्ञो छोग उनके शब्दों का ठीक उच्चा- रण न फर सकते थे, उन्हें श्रौर उनके द्वारा उच्चरित शब्दों को म्लेच्छ कहते थे। स्लेच्छ शब्द उस समय श्राजकल की भाँति घृणा घा निंदा- व्यंज्क नहीं था | श्रस्तु; जब मध्यवर्ती मापाओं ( पाली, शैरसेनी, तथा श्न्य प्राकृतों ) का रूप स्थिर दोकर सादित्य में श्वरुद्ध हो गया एवं संस्कृत




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