शिक्षांक | Shikshank

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घ + सानात्पने भगवते नस ईश्वराय + [ शिक्ष फाकफकककाफ पाक कक कक पा की कफ 5 सा पान फपाफ शक फशफ कफ मम कक के फफ कर्क के के कफ पाक के कक कक्षाफफ फ के कफ फप्टफफ फफफफ फफ फफाककफफरम सैदिक बाल-प्रार्थना 35० विशानि देव । यद्‌ू भद्धं तम्न आसुव ॥ (यजुर ३०1 दिंव्य-गुण-धारी जगके जनक, दुरिति-दल सकल भगा दो दूर । किंतु जो करे आत्प-कल्याण, उसीको भर दो प्रभु ! भरपूर 11 32 अग्ने मय सुप था राये अस्पान्‌ विश्वानि देव चयुनानि विद्वान । युयो ध्यस्पज्जुहुराणमेनों भूयिष्ठीं ते मम उक्ति विधेम ॥ (यजून 1 १६) सुपथपर प्रभु ! हपकों ले चलो, आप्त हो संतत धुव कल्याण 1 सच्ल कृतियाँ हैं तुमच्ठों खिदधिति, पाप-दलकों कर दो प्रियमाण १1 पुप्यकी घ्भा चमकसे लगे, पापका हो न लेश भी शेष 1 भक्तिमें भरकर तुमको में, सहस्रों वार परम प्राणेश 1 3 असतो मा सदू रामय, तमसों पा ज्योतिर्गसय | सृत्योममुत गमय ॥। (शत १४1 ३1 १ ३०) ऊअसतसे सत, तमसे नव ज्योति, मृत्युसे अमृत तच््वकों ओर 1 हमें प्रतिपल ! ले चलो, दिखाओ अरुण करूपा-कोर ऊ उप त्वार्ने दिवेदिसे दोषावस्तर्धघियावया । सम भरन्त एमससि ॥ (किन १1१1१) दिवसके प्रथम, रात्रिसे पूर्व, 'भक्तिसे स्वार्थ-त्यागके साथ 1 आ रहे हैं अतिदिन ले भेंट, तुम्हारी चरण-शरणमें नाथ 11 32% त्व॑ हि न: पिता वसो त्व॑ं माता शतक्रतों बभ्ूविध 1 अधा ते सुम्नमीमहे ॥। (ऋण ८1९८1 ९४) हमारे जनक, हमारी जननि तुम्हीं हो, हे सुरद्र सुखधाम 1 तुम्हारी स्तुतिमें रत करबद्ध, करें हम बाल विनीत श्रणाम उ सा प्र गास पथो वये मा यज्ञादिन्द्ध सोमिन: । मान्तः स्थुनों अरातय: ॥। (कऋ ० | ६) चलें हम कभी न सत्पथ छोड़, विभवयुत होकर तजें न त्याग 1 हमारे अंदर रहें न. शान, सुकृतमें रहे. हमारा भाग 0 3० इन्द्र आशाध्यस्परि सबश्यि अभय करत 1 जेता शत्र विचर्षीणि: ॥1 (ऋण २1४१1 १५ सर्चदर्शक अरभु ख़ल-बल-दलन, विभव-सम्पनन इष्द्र अधिराज दिशा-विदिशाओंगें सर्वश्र, हमें सर दो सिर्भय 3० आ त्वा रम्भें न जिन्नयो ररभ्मा शवसस्पते । उर्श्मा त्वा सधस्य उ् 1 ८ रन व रि० निखिल बल अधिपति ! मैंने आज, चृद्धकी आश्रय, लकुटि समान तुम्हारा अवलम्बन है लिया, शरणमें रक्‍्खो, हे भगवान्‌ 35% सोम रारन्धि नो हृदि गावो नम । मर्य इव स्व औओक्ये ॥। (ऋण १1९१) १३ मतुज अपने घरमें ज्यों रहें, चरें गोएँ ज्यों जौका खेत | हृदयमें रम जाओ त्यों नाथ, बना लो अपना इसे भिकेत | 3 यच्चिद्धिं ते विशो यथा प्र॒ देव वरुण ज्रतम्‌ । श्नीमसि दाविद्यवि (कऋण १1२५! १) ! हम दिन-रत किया करते हैं जो ब्रत-भड्ट । समझकर अपनी संतति पिता ! उद्ारों हसें क्षयाके संग । 3 यट्टीकाविन्द्र थत्‌ स्थिरे यतू पशनि पराभूतम्‌ 1 वर स्पाहँ तदा भर !। (ऋण ८ | परम ऐश्वर्ययुक्त हे इन्द्र ! हमें दो ऐसा धन स्पृहणीय । यीर चूढ़॒ स्थिर जन चिन्तमशील बना लेते हैं जिसे स्वकीय ।! ऊ० आ ते बत्सों मनो यपत्‌ परपाच्चित्‌ सधस्थात। आर्मी सखांकामया गिरा 1! (ऋण ८ 1 ११1७) उठ रही मेरी वाणी आज, पिता! पामेकों सेरा धाम । अरे. सह ऊँचा-ऊँत्ा जहाँ है. जीवनका विश्राम ॥ तुम्हारे बत्सल रससे भीग, हृदयव्सी करूण कामना कॉन्त । खोजने चली विवश हो तुम्हें, रहेगी कबतक भवमें पान ॥ दूर-से-दूर भले तुम रहो, खींच लायेगी क्ततु समीप 1 विरत कबतक चातकसे जलद, स्वातिसे मुक्ता-भरिता सीम २ ॥ शाम,




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