शिक्षांक | Shikshank
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
33.11 MB
कुल पष्ठ :
327
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about राधेश्याम खेमका - Radheshyam Khemka
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)घ + सानात्पने भगवते नस ईश्वराय +
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सैदिक बाल-प्रार्थना
35० विशानि देव । यद्ू भद्धं
तम्न आसुव ॥ (यजुर ३०1
दिंव्य-गुण-धारी जगके जनक, दुरिति-दल सकल भगा दो दूर ।
किंतु जो करे आत्प-कल्याण, उसीको भर दो प्रभु ! भरपूर 11
32 अग्ने मय सुप था राये अस्पान् विश्वानि देव चयुनानि विद्वान ।
युयो ध्यस्पज्जुहुराणमेनों भूयिष्ठीं ते मम उक्ति विधेम ॥
(यजून 1 १६)
सुपथपर प्रभु ! हपकों ले चलो, आप्त हो संतत धुव कल्याण 1
सच्ल कृतियाँ हैं तुमच्ठों खिदधिति, पाप-दलकों कर दो प्रियमाण १1
पुप्यकी घ्भा चमकसे लगे, पापका हो न लेश भी शेष 1
भक्तिमें भरकर तुमको में, सहस्रों वार परम प्राणेश 1
3 असतो मा सदू रामय, तमसों पा ज्योतिर्गसय |
सृत्योममुत गमय ॥। (शत १४1 ३1 १ ३०)
ऊअसतसे सत, तमसे नव ज्योति, मृत्युसे अमृत तच््वकों ओर 1
हमें प्रतिपल ! ले चलो, दिखाओ अरुण करूपा-कोर
ऊ उप त्वार्ने दिवेदिसे दोषावस्तर्धघियावया । सम
भरन्त एमससि ॥ (किन १1१1१)
दिवसके प्रथम, रात्रिसे पूर्व, 'भक्तिसे स्वार्थ-त्यागके साथ 1
आ रहे हैं अतिदिन ले भेंट, तुम्हारी चरण-शरणमें नाथ 11
32% त्व॑ हि न: पिता वसो त्व॑ं माता शतक्रतों बभ्ूविध 1
अधा ते सुम्नमीमहे ॥। (ऋण ८1९८1 ९४)
हमारे जनक, हमारी जननि तुम्हीं हो, हे सुरद्र सुखधाम 1
तुम्हारी स्तुतिमें रत करबद्ध, करें हम बाल विनीत श्रणाम
उ सा प्र गास पथो वये मा यज्ञादिन्द्ध सोमिन: । मान्तः
स्थुनों अरातय: ॥। (कऋ ० | ६)
चलें हम कभी न सत्पथ छोड़, विभवयुत होकर तजें न त्याग 1
हमारे अंदर रहें न. शान, सुकृतमें रहे. हमारा भाग 0
3० इन्द्र आशाध्यस्परि सबश्यि अभय करत 1 जेता शत्र
विचर्षीणि: ॥1 (ऋण २1४१1 १५
सर्चदर्शक अरभु ख़ल-बल-दलन, विभव-सम्पनन इष्द्र अधिराज
दिशा-विदिशाओंगें सर्वश्र, हमें सर दो सिर्भय
3० आ त्वा रम्भें न जिन्नयो ररभ्मा शवसस्पते । उर्श्मा
त्वा सधस्य उ् 1 ८ रन व रि०
निखिल बल अधिपति ! मैंने आज, चृद्धकी आश्रय, लकुटि समान
तुम्हारा अवलम्बन है लिया, शरणमें रक््खो, हे भगवान्
35% सोम रारन्धि नो हृदि गावो नम । मर्य इव स्व
औओक्ये ॥। (ऋण १1९१) १३
मतुज अपने घरमें ज्यों रहें, चरें गोएँ ज्यों जौका खेत |
हृदयमें रम जाओ त्यों नाथ, बना लो अपना इसे भिकेत |
3 यच्चिद्धिं ते विशो यथा प्र॒ देव वरुण ज्रतम् ।
श्नीमसि दाविद्यवि (कऋण १1२५! १)
! हम दिन-रत किया करते हैं जो ब्रत-भड्ट ।
समझकर अपनी संतति पिता ! उद्ारों हसें क्षयाके संग ।
3 यट्टीकाविन्द्र थत् स्थिरे यतू पशनि पराभूतम् 1 वर
स्पाहँ तदा भर !। (ऋण ८ |
परम ऐश्वर्ययुक्त हे इन्द्र ! हमें दो ऐसा धन स्पृहणीय ।
यीर चूढ़॒ स्थिर जन चिन्तमशील बना लेते हैं जिसे स्वकीय ।!
ऊ० आ ते बत्सों मनो यपत् परपाच्चित् सधस्थात। आर्मी
सखांकामया गिरा 1! (ऋण ८ 1 ११1७)
उठ रही मेरी वाणी आज, पिता! पामेकों सेरा धाम ।
अरे. सह ऊँचा-ऊँत्ा जहाँ है. जीवनका विश्राम ॥
तुम्हारे बत्सल रससे भीग, हृदयव्सी करूण कामना कॉन्त ।
खोजने चली विवश हो तुम्हें, रहेगी कबतक भवमें पान ॥
दूर-से-दूर भले तुम रहो, खींच लायेगी क्ततु समीप 1
विरत कबतक चातकसे जलद, स्वातिसे मुक्ता-भरिता सीम २ ॥
शाम,
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