मध्यकालीन धर्म -साधना | Madhyakalin Dharm-sadhna

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हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।

द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घर्म-साघना का सादित्य हद हैं| जो शात्र उन दिनों प्रतिष्ठित हुए वे सैकड़ों वध॑ बाद श्राज भी भारतीय मनीषा को प्रेरणा दे रहे हूं । इस काल को भारतीय उन्नति के स्तब्ध दो जाने का काल नहीं कहा जा सकता । लेकिन विक्रम की छुठीं शताब्दी के बाद भारतीय धघ्मंसाघना में एक नई का उदय अवश्य होता है । इस समय से भारतीय घर्मे-साघना के केत्र में उस नए प्रभाव का प्रमाण मिलने लगता है जिसे संक्षेप में तांत्रिक _ प्रभाव कह सकते हैं। केवल श्राह्मण ही नहीं जैन और बौद्ध सम्प्रदायों में भी यह प्रभाव स्पष्ट रूप से लक्षित दोता है । बौद्ध-घ्म का अंतिम रूप तो इस देश में तांत्रिक दी रद्दा । दसवीं शताब्दी के झ्रासपास श्ाते-आाते इस देश की घर्म साघना बित्कुल नये रूप में प्रकट दोती है। निस्संदेद यहाँ से भारतीय मनीषा के उत्तरोत्तर संकोचन का काल श्रारंभ दोता है। यह झवस्था शताब्दी के झंत तक चलती रद्दी उसके बाद भारतवर्ष फिर नये ढंग से सोचना आरंभ करता है । सच पूछा जाय तो विक्रम की दसवीं शताब्दी के बाद दी भारतीय इतिहास का वह काल आरंभ दोता है जिसे संकोचनशील और श्तब्घ मनोइतति का काल कहा जा सकता है । यदद सत्य है कि मध्यकाल में कोई भी ऐसी प्र्नत्ति कठिनाई से मिलेगी जिसका बीजारोपण किसी न किसी रूप में पू्व॑वर्ती काल में न दो गया हो । परन्तु धघर्म-साधना का इतिहास जीवन्त वस्तु है श्र जब दम किसी प्रवृत्ति को नई कहते हैं तो इमरा मतलब सिफ इतना दी दोता है कि यदद प्रबृत्ति कुछ विशेष ऐतिहासिक श्र सामाजिक कारणों से श्रत्यन्त प्रबल होकर प्रकट हुईं था | एक विशिष्ट अ्रवृतति दसवीं शताब्दी के श्रास-पास एक विशिष्ट मनोबत्ति का प्राघान्य भारतीय धर्मसाधना के छेत्र में स्थापित दोता है यद्यपि वह नयी नहीं है । कम से कम विक्रम के छुठीं शताब्दी से निश्चित रूप से इस प्रद्नतति के रहने का प्रमाण मिलता है। विरोधी मतों को श्रवैदिक कहकर देय सिद्ध करना




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