विनोबा के विचार भाग १ | Vinoba Ke Vichaar Part I

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Vinoba Ke Vichaar Part I by आचार्य विनोबा भावे - Acharya Vinoba Bhave

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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त्याग ध्रौर दान ११ लड़के का ब्याह नहीं हुमा, वह अ्रभी होने को है, यह मेरी समभ में श्राता है; लेकिन भ्रवतक मेरे हाथ से सूत नहीं कता, वह श्रागे कतने कोहै, यह्‌ मेरी समभा में क्यों नहीं श्राता ? इसका जवाब साफ है। श्राजतक मैंने स्व राज्य नहीं पाया है, वह श्रागे पाना है, यह हमारे ध्यान में न होने की वजह से । श्रौर इसीके साथ श्राजतक मैं मरा नहीं हूं तो भी श्रागे मरना है; बल्कि श्राजतक मैं मरा नहीं, इसीलिए प्रागे मरना है, इस बात का भी भान नहीं रहा इसलिए । मेरे मन, झाजतक मैं मरा नहीं, इससे भ्रागे नहीं मरना है, ऐसे बूढ़े तकं का ग्रासरामत लो, नहीं तो फजीहत होगी ! : २: त्याग श्रोर दान एक श्रादमी ने भलेपन से पंसा कमाय। है । उसस वह ग्रपनी गृहस्थी सुख-चेन से चलाता है । बाल-बच्चों का उसे मोह है, देह की ममता है । स्वभावत: ही पेसे पर उसका जोर है। दिवाली नजदीक भ्रातेही वह्‌ भ्रपना तलपट सावधानी से बनाता है । यह देखकर कि सब मिलाकर खचं जमा के श्रंदरहै ्रौर उसमें पूजी कुछ बढ़ी ही है, उसे खुशी होती है। बड़े ठाठ से श्रौर उतने ही भक्तिभाव से वह लक्ष्मीजी की पूजा करता है । उसे द्रव्य का लोभ है, फिर भी नाम का कहिये या परोपकार का कहिये, उसे खासा खयाल है । उसे ऐसा विश्वास है कि दान-धमं के लिए, इसीमे देश को भी ले लीजिये, खच किया हूश्रा धन न्याज-समेत वापस मिल जाता है। इसलिए इसं काम में वह खुले हाथों खचं करता है । भ्रपने प्रासपास के गरीवों को इसका इस तरह बड़ा सहारा लगता है जिस तरह छोटे बच्चों को श्रपनी मां का । दूसरे एक श्रादमी ने इसी तरह सचाई से पंसा कमाया था, लेकिन इसमे उसे संतोष न होता था। उसने एक बार बाग के लिए कुश्रां खुदवाया । कुभ्रां बहत गहरा था । उसमें से थोड़ी मिट्टी, कुछ छरी श्र बहुत पत्थर निकले ।




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