निबन्धिनी | Nibandhini

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Nibandhini by श्री गंगाप्रसाद पाण्डेय - Shri Gangaprasad Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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साहित्य की उपयोगिता १९१ निहित है । जीवन में ऐसा नहीं, क्योंकि जीवन में शारीरिक तथा झात्मिक विकास की भिन्नता रहती दे । साहित्य समन्वय का ही सुफल है । वास्तव में, साहित्य में चुद कण से लकर महान्‌ पर्वत तक समी सम्मिलित होते दे ! वहां पर सीमित श्रौर असीमित में विरोध नहीं । वहा की चरम साधना सब तत्त्वं के साभजस्य करने में हो सफल होती है! सादित्यकाभी एक श्रपना श्रादश होता हे जो जीवन की अ्नन्तश्चैतना तथा सोन्द्य-भावना का द्योतक है। मानव-मन की यह भावनाएं सारहीन नहीं हे, वरन्‌ अआनन्द-उपलन्धि के लिए श्नत्यन्त व्रावश्यक हैं । भव्य भावनाएं केवल पार्थिव उपयोग की साधिक्रा नहीं, किन्तु मन दौर श्रात्मा की भी पोषिका हैं । अस्तु, अब सोचना यह चाहिए कि क्या साहित्य की उपयोगिता हमारी बाह्य- अआवश्यकताश्ों की पूर्ति करने में ही है, या उसका कुछ नौर उदेश्य भी है । यह विज्ञान का युग है । इस युग में व्यक्ति महान नहीं, वरन्‌ विस्तृत होना चाहता है । श्राज का प्राणी तुम त्रिकालदर्शी मुनि नाथा, विश्व बदरि जिमि तुम्हरे हाथा की अ्रपेक्ता एक मोटर-कार की तीत्र चाल पर श्रधिक विश्वास रखता है । इसी पाथिव-सम्पन्नता की श्राकुल आकांक्षा के फलस्वरूप विज्ञान की गति भी तीव्र-से-तीव्रतर होती जाती है । लॉग यह नहीं सोचत कि विज्ञान सदैव कला के पीछे-पीछे चलता है, यथा भावना के पीछे कार्य । कौन कह सकता है कि कवि की विहग-माला के साथ उड़ने की कमनीय कल्पना का. ही वस्तुरूप हवाई जहाज नहीं है १ चाहे जो हो, परन्तु इस प्रकार के पार्थिव वैभव से साहित्य का सम्बन्ध कम है । सच तो यह है कि किसी भी वेभव-सम्पन्‍न व्यवस्थित जाति का ही साहित्य उन्नतिशील नदीं होता, श्रन्यथा शक्तिहीन हिन्दू जाति में झ्राज सूर तथा तुलसी के समान उच्चकोटिं के कलाकार नहीं होत । तब फिर इस वैभव की बीहडता मे साहित्य क्यों केद किया जाय १ विज्ञान कं न्वेष एक के बाद एक पुराने पड़ते जात हैं, समय की गति के साथ उचके प्रति विस्मय का भाव कम पड़ता जाता है, किन्तु किसी साहित्य के साथ विस्मृति की ये घड़ियाँ नहीं खेल सकतीं । इसका एक कारण है कि साहित्य में व्यक्तित्व की प्रधानता रहती है श्रौर विज्ञान में नियम की । यही कारण है कि गेलिलियो की झपेक्ता हम शेक्सपियर को झाज भी झपने जीवन के अधिक समीप पाते हैं । प्रकृति के रहस्य विज्ञान से भी स्पष्ट होत द पर उनमें भावना का कोई श्राकर्षण, जीवन-ज्योति का कोई झ्राभास नहीं रहता, किन्तु साहित्य के माध्यम से जो प्राकृतिक रहस्य स्पष्ट होते हैं वे नित-नवीन बने रहते है । मनुष्य का मन उपा कं सौन्दथ-विकास से ्ाज भी सुग्ध होता है ओर होता रहेगा । उसकी प्रतिक्रिया के भावों की झभिव्यक्ति साहित्य में




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