साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध | Sahityakar Ki Aastha Tatha Anya Nibandh

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Sahityakar Ki Aastha Tatha Anya Nibandh by श्री गंगाप्रसाद पाण्डेय - Shri Gangaprasad Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अतिरिक्त कोई निश्चित कसौटी नही दे सका जिस पर साहित्य और काव्य का खरा-खोटापन विश्वास के साथ परखा जा सके। छायावादी काव्य के पूर्व हिन्दी आलोचना का इतिहास इस तथ्य का साक्षी है । पदमसिह शर्मा, सिश्रवन्वु, लल भगवानदीनत, जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी श्रादि श्रालोचक यही निर्णय नही कर पाए थे कि काव्यालोचन की कसौटी स्वय आालोचक की रुचि से निर्मित हो, अथवा परम्परागत सिद्धान्तों से, जीवन का वहाँ कोर प्रदनं ही नदी था । केवल एक दी श्रादनं सामने था--कविः ` करोति कव्यानि, स्वाद जानन्ति पडता , इसी वल पर श्रालोचक फूला नहीं समाता था } काव्यालौचन के सदर्भमे ध्म, नीति श्रीर लोक मगल को स्यानं देकर आचार्य शुवल ने कुछ उदारता का परिचय दिया, और जीवन की माँग को सीमित रूप मे ही सही, सामने रखा । सीमित इसलिए कि शुबल जी जीवन का अर्थ उस जीवन से लगाते थे जो रामचरितमानस में व्यक्त हुआ है, उसके वाहर जीवन की किसी स्थिति पर उनकी आस्था नहीं के बरावर थी । किसी भी कान्य पर विचार करते समय वे यह्‌ देखना नही भूल पाते थे किं गौस्वामी जी के काव्य से उसकी पुष्टि होती है या नही । छायावादी कवियो मे और विशेष रूप से महादेवी जी ने काव्यालोचन के सिद्धान्तो को प्रथम वार जीवन के विकासशील सिद्धान्तो के समकक्ष रखकर विवेचना के सूत्रो को केवल सिद्धान्तवादी श्रालोचको के हाथ से छीनकर कचि के जीवन व्यापी अनुभव और अभिव्यक्ति कौशल के हाथो मे रख दिया । जनतत्रीय जीवन घारा का साहित्य में भी श्रभिषेक हुआ । इस प्रतिक्रिया से साहित्य के व्यापकत्व श्रीर कवि की प्रतिष्ठा का जो समवर्द्धन हुआ, वह লিং अपेक्षित था । छायावादी स्वच्छन्द भाववारा श्रौर रहस्यवादी भावसूक्ष्मता तथा प्रेम के उदात्तीकरण को विदेशी तथा मात्र अभिव्यञ्जना एवं केवल काल्पनिक कहने वालो का मुँह बन्द करने के लिए महादेवी जी ने उसे भारतीय काव्य की, जीवन के साथ सतत्‌ विकसित होने वाली वैदिक, पालि भौर प्राकृत काव्यों की परम्परा से सवद्ध सिद्ध करते हुए उसकी स्थिति को स्वाभाविक और उसकी अभिव्यक्ति 'को सांस्क्ृतिक महत्ता देने मे जिस सबलेपणी प्रतिभा का परिचय दिया है, वह समीक्षा के इतिहास में अकेली है । परवर्ती आलोचको की आालोचना में इसका प्रभाव शोर अनुसरख प्रत्यक्ष ই। भीति-काव्य' पर उनका निवन्ध अपने ढंग का प्रथम और प्रामाणिक है। उनकी गीत की यह परिभाषा पाठकों और आलोचको के लिए कठहार वन गयी




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