सत्याग्रह - मीमांसा | Satyagraha Mimansa

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Satyagraha Mimansa by रंगनाथ दिवाकर - Rangnath Diwakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गे { पंदह 3 रही है । इसमें कितने ही बौद्ध और जेन पंडितों का भी समावेश होता हे । प्रत्येक यह सिद्ध करके दिखाता प्रतीत होता है कि उसके पन्‍्थ में हिंसा का सबंधा निपेघ नहीं है । वल्कि उन पर्न्थोँ ने तो यह भी स्वीकार किया है कि कुछ प्र्तंगों के ऊपर हिंसा पवित्र श्रौर धाक कर्तव्य हो जाता दे । , इस पांडित्यपूर्ण चर्चा को सुनकर तो ऐसे साधारण व्यक्ति भी भ्रम में पढ़ जाते हैं जिनको पहिले गांधीजी के उपदेशों के विपय में कोई शंका नहीं थी । [+ ऐसी स्थिति मं सस्याप्रहु-तच के सम्बन्ध में छिस प्रकार विचार करना ठीक होगा ? यहां में अपने विचार रखता हूं । मेरे विचारों की उत्क्ान्ति में श्रनेक धासिक श्र तात्विक संस्कारों का हाथ है। लेकिन राज मेरी निष्टा किसी विशेष घर्मपंथ अथवा दर्शन से चिपटी हुई नहीं है श्रौर न वह किंसी भी शाख के शव्द्-प्रमाण ही मानती दे । लेकिन कुछ इतिदास-प्रसिद्ध सत्याध्रही, कुछ मेरे श्रपने परिचित सत्याग्रह श्रौर मेरा श्रपना थोडा-वहुत श्रजुभव, इन सवके श्राधार पर नै यह द्ढनेका प्रयत्न करू गा क्रं सत्याग्रही की निष्ठ के मूल में किस प्रकार का धर्यं म | प्रौर चल काम करता है इससे में इस निणंय पर पहुँचा हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में दो विशेष प्रकार के वलों के वीज रहते हैं । में एक को नीतिवल श्र दूसरे को तेजोवल कहूँगा | इनमें नीतिवल का स्वरूप इस प्रकार है--मनुप्य को तरह-तरह के ऐहिक लाभ तथा मानसिक एवं देन्दिक सुखो की इच्छा रटती हे प्नौर उन्हे प्रा करने कै लिट वह रात-डिन प्रयत्न किया करता दै । लेकिन उसे श्रपने पर संयम रखने की एक देसी शक्ति प्रप्त रहती हे




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