जैन इतिहाश की प्राचीन कथाएँ | Jain itihas Ki Prachin Kathayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चक्रदतीं नं की क 2 अभिमान गल गया . समस्त . भरत-खण्ड की दिगू-विजयं॑ करते हूँए चक्रवर्ती भरत ..वृषशाचंल ऋषभ कूट -पवत परं पहुँचे । स्फंटिक॑ से उज्ज्वल श्वेत प्रस्तरों के गंगंन- चुम्बी ऊंचे. शिखर और . उन पर पड़ते हुए. सु किरणों के प्रतिबिस्ब विचित्र चमक और सोहकं आभा लिए ऐसे लग रहे थे मानों गंध और किन्नरों की सुन्दरियाँ श्वगार-प्रसाधन क़रके उनमें मुंह देखने क्रो आती. हों । चक्रवर्ती भरत उस दुधियां पवेत॑ की सन .भावनी आभा को और उज्ज्वल शिला-पट्टों की लम्बी पंक्तियों को. घूम-घूम कर देखनें लगे । छह खण्ड की दिगू-विजय और - चक्कवतित्व के .गवं से दीप्त _ भरत की. आँखें वृषभाचल की स्फटिक सी श्वेत आशा में अपने निर्मल यश - का. प्रतिबिम्ब झलकता हुआं देख रही थीं.। . . ...




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