जैन धर्म प्रकाश | Jain Dharma Prakash

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Jain Dharma Prakash by ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद - Brahmachari Shital Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ऊ ) चदी जैनियो का मत है । परमात्मा या परमपद का धारी परम आत्मा, इच्छारदित, कृतछृत्य, शरीररद्ति व करने कराने के विकर्पों से रदित है । इसत वइ न जगत)को वनावाहै न्‌ विगा डता है । जगत्‌ मे बहुत से काम्‌ तो विना चेतन के निमित्त घे हये केवलर्योदो जड़ निनित्तो के मिल जाने से होते हैं; जेसे सेव बनन', पानी बरसना आदि । बहुत से कामों को संसारो अशुद्ध जोध निरन्तर शिया कसते है! जते घोंसला बनाना आदि । शुद्ध प्रमु इन फगजञो मे नदी पड़ता है । जैन लोग परमात्मा को मानते हैं, इसीलिये वे पूजा व भक्ति अनेक प्रकार से करते है । उनका जो प्रसिद्ध मन्त्र है उस का पहला पद्‌ ही परमात्मा का नमस्कार वाचक दहै, जैसे “मो रदं ताणं? । जेन लोग शाला, परमात्मा, पुख्य, पाप, यह्‌ लोक, परलोक, पुण्य-पाप का फल, सुख, दुःख, संसार व समोक्ञ मानते है । इसलिये उनको नास्तिक कना बिलकुल अनुचित है । जैनियों के मन्दिरों में कोई ऐसो बात नहीं है, जिससे ' कोई दानि दो सके, यदि कोई निमंल दृष्टि से देखेगा तो उसको जैन मन्दिरो में बहुत अधिक शांति और बेराग्य का दृश्य मिलेगा ।' आप छिसी भी जेन मन्दिर मे चले जादये, वहां वे उन मंद्दान पुरषो की ध्यानमई मूर्तियां मिर्लेगी, जो परमास्प्रापद्‌ पर पहुँचे हैं । इनको तीथकर कहते हैं ¦ उनके द्धन से सिवाय शान्ति और वैराग्य के कोई और भाव दर्शक के चित्त में द्दो द्दी चीं सकता है \ भगवद्‌ गीता अ० ६ में जिस योयान्याख की




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