सर्वार्थ सिद्धि | Sarvarth Siddhi

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Sarvarth Siddhi  by फूलचन्द्र सिध्दान्त शास्त्री -Phoolchandra Sidhdant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दो शब्द ९. दसी प्रकार एक वाक्य 'सन्संख्या--दत्यादि सूत्रको व्याख्याके प्रसंगमे लेक्या प्रकरणमें आता है । जो इस प्रकार है- 'दरादक्चमागाः कुतो न छभ्यन्ते, इति चेत्‌ तत्रावस्थितलेश््यापेक्षया पन्चैव । अथवा येषां मते सासा- दनपकेन्द्रियेषु नोरथते तन्मतापेक्षया पञ्चैव प्रकरण कृष्ण आदि लेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके स्पर्शनका है। तियंत्र और मनुष्य सासादन- सम्यग्दष्टि जीव मर कर नरकमें नहीं उत्पन्न होते । जो देवगतिमें जाते हैं या देवगतिसे आते हूं उनके कृष्ण अदि अशुभ लेश्याएं नहीं होतीं । नरकसे आनेवालोंके कृष्ण आदि अशुभ लेद्याएं और सासादनसम्यग्दर्शन दोनों होते हैं। इसी अपेक्षासे यहाँ कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्यावाले सासादनसम्यग्दष्टि जीवोंका स्पर्शन क्रमसे कुछ कम पाँच बटे चौदह राजू, कुछ कम चार बटे चौदह राजु और कुछ कम दो बड़े चौदह राजु कहा गया है । यह षटुग्वण्डागमका अभिमत ह । सर्वार्थसिद्धिमें सत्‌, संख्या मौर क्षेत्र आदि अनुयोगदारोका निरूपण इसी अमिप्रायसे किया गया ह । कषायगप्राश्ुतका अभिमत इससे भिन्न टै । उसके मतस्े सासादनसम्यग्दष्टि जीव मर कर एकेन्द्रियोमे भी उत्पन्न होते हैं। इसलिए इस अपेक्षासे कृष्ण लेश्यामें सासादनसम्यग्दुष्टिका कुछ कम बारह बटे चौदह राजु स्पर्शन भले ही बन जावे, परन्तु षटखण्डा मकं अभिप्रायसे इन लेश्याओं मे यह स्पर्शन उपलब्ध नहीं होता । हमारे सामने यह प्रदन था । सवर्थिसिद्धिमें जब भी हमारा ध्यान 'द्वाद्शमागा: कुतो न रुभ्यन्ते' इत्यादि वाक्य पर जाता था, हम विचारमें पड़ जाते थे । प्रश्न होता था कि यदि सवर्धिसिद्धिकारकों मतभेद- की चर्चा करना इष्ट था तो सत्प्रूपणामें उन्होंने इस मनभेदका निदेश क्यो नहीं किया ? अनेक प्रकारसे इस वाक्यके समाधानकी ओर ध्यान दिया पर समुचित समाधानके अभावमें चुप रहना पड़ा । यह विचार अवश्य होता था कि यदि सर्वार्थसिद्धिको प्राचीन प्रतियोका आश्रय च्या जाय तो सम्भव है उनमें यह्‌ वाक्यन हो । हमें यह संकेत करते हुए प्रसन्नता होती है फि हमारी धारणा ठीक निकलो । मृडबिद्रोसे हमे जो ताड- पत्रीय प्रतियाँ उपलब्ध हुई उनमें यह वाक्य नहीं है । दस आधारसे हम यह निर्चयपूर्वक कह सकते हैं कि यह वाक्य भी सवर्थिसिद्धिका नहीं है । सर्व-प्रथम सर्वार्थंसिद्धिम्‌का मुद्रण कल्रप्पा मरमष्पा निटबेने कोल्हापुरसे किया था । दूसरा मुद्रण री मोतीचन्द्र गोतमचन्द्र॒ कोठारी ढारा सम्पादित होकर सोरापुरसे हुआ है । तथा तीसरी बार श्रीमान्‌ पं० वंश्ीधरजी सोखापुश्वालोने सम्पादित कर इसे प्रकाशित किया ह । पण्डितजी ने इयके सम्पादित करनेमें पर्याप्त श्रम किया है ओौर अन्य संस्करणोंकी अपेक्षा यह संस्करण अधिक शुद्ध है । फ़िर भी जिन महत्त्वपूर्ण शंकास्थरोकी ओर हमने पाटकोंक।! ध्यान आकर्षित किया हैं वें उस संस्करणमें भी यथास्थान अवस्थित हैं । सर्वार्थसिद्धिके नीचे जो टिप्पणियाँ उद्धृत की गयी हैँ वे भी कई स्थलों पर भ्रमोत्पादक हैं । उदाहर- णार्थ कालप्ररूपणामें अनाहारकोंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा सासादनसम्यग्द््टियोंका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया गया हैं । इस पर टिप्पणी करते हुए टिप्पणकार लिखते हैं-- *'आवलिकाया असंख्येयमाग इति --स च ावदलिकाया असंख्ययमागः समयसमात्रक्षणत्वात्‌ एक- समय एव स्याते , आावल्या: असंख्यातसमय लक्ष णत्वात्‌ ।' इसका तात्पर्य यह है कि वह आवछिका असंख्यातवाँ भाग एक समय लक्षणवाला होनेसे एक समय प्रमाण ही होता है, क्योकि एक आवलि असंख्यात समय होते है, अतः उसका असंस्बातवां भाग एक समय ही होगा । स्पष्ट है कि यदि यहाँ आचार्योको एक समय काल इष्ट होता तो वे इसका निर्देश 'एक समय' शब्द द्वारा ही करते । जीवस्थान कालानुयोगद्वारमें आवलिके असंख्यातव भागप्रमाण कालका जो स्पष्टोकरण किया है उसका भाव यह है कि कई सासादनसम्यग्दृष्टि दो विग्रह करके दो समय तक अनाहारक रहे और तीसरे समयमे अन्य सासादनसम्यण्दषटि दौ विग्रह करके अनाहारक हुए. । इस प्रकार निरन्तर आवलिके असंख्यातवें प्रस्तावना-र




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