आत्मोत्सर्ग | Aatmotsarg

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Aatmotsarg by पण्डित शिवनारायण दिवेदी - Pandit Shivnarayan Divedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दारिद्य द्रत। ११ ही कि नजन त 9 ०5 म ०० उन नह 1 त्यागसन्त कौ मदिमा ससस कर विखासिल्नने राज- सिंडाखन छोड़ दिया था। शेश्वथं घौर दायो घोड़ों को छोड़ सरवे संन्यासो बने थे। उन्होंने देखा कि जो मेता बनना पार--जो द्यो को उपदेश देना चा, ७से सवर प्ले अपने साध दो वलि देनो पाछिये--भपने ऐश को दूसरोंके हिति मी सगाकर ऽसे दारिद्धय-मन्न सिद करना चाहिये । रसशिये अपना राच्य घोर राज सिंहासन त्यागकर विश्वासिच संन्यासी चने) उनक्त दारिद्य-मन्व सिद करते समय विश्व. याप उठा था । संसारसें न सानूम कितने राजा 'होकर मर गये, संसार न नहीं जानता, यदि विश्वामित्र मौ रजा ठौ रहत तो उन्दः कौन पहदानना १ किन्तु राजञपिं विश्वामित्र को नंखार जानता है--मप्ति सदित सिर कूकाता है । जिस दिन त्यागसस्त सिद्द था, उस दिन सारत भी उन्नत घा-जिस दिन दरिद्रता से घृणा न थी तत्र भारत भी संसार: कानेताथा। विन्तु जय से इसे घणा पुई, तभी से भारत गिरने लगा है। ३ भारत-मन्तान! उस उम्रत _दिन को लानेके लिये फिर उसी व्यागसन्त को सिद कर--फिर रसौ ' दारिट्राघ्रच को पालन कर | संपार को कोई शक्ति इस घ्रत के पालने वालों के सामने नहीं टिक सकती । घनवल्त, एश्डिये- वल्‌, जनरल, श्रादि कोई भो वल होःकिन्तु त्वागवलके सामने, सवको सिर. भाकाना प्रड़ता है। संसार का इतिदांस त्याग कर स ~~ यौ कधामात्र ई । जिसने त्याग खोक्तार किया, व्ह उन्नत बना ५८५० ९.० ७०५५५ ७०७




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