सूक्ति त्रिवेणी | Sukti Triveni 

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मेरा यह श्ट विरवास है कि समस्त भारतीय चिन्तन का उत्स एक है भौर वह्‌ है भध्यासम ! जीवन की परम निः यस्‌ साधना ही भारतीय दलेन का साधना पक्ष है! विभि धाराओं मे उसके रूप विभिन हो सक्ते है, हृए भीर, किन्तु फिर भी मेरे जैसा अभेदप्रिय व्यक्ति उन भेदों में कभी गुमराह नहीं हो सका । अनेकत्व में एकत्व का दर्जन, भेद में अभेद का अनुसधान-- यही तो वह मूल कारणरहै, जो सक्ति त्रिवेणी के इस विशाल संकलन के लिए सु कुच वर्पो से प्रेरित करता रहा भौर अस्वस्थ होते हए भी मै इस आकर्षण को गौण नही कर सका भौर इस भगीरथ कार्यं मे संलग्न हो गया । * जेतधारा भारतीय वाड. मय की तीनों धाराों का एकत्र सारसंग्रह करने की दृष्टि से मैंने प्रथमतर जैन धारा का संकलन प्रारम्भ किया । आप जानते है, मैं एक जन मुनि हं, अतः सहज ही जेन धारा का सीधा दायित्व मु पर जागया। इस संकलन के समय मेरे समक्ष दो हृष्टियाँ रही है । पहली--मै यह देख रहा हूँ कि अनेक विद्वान, लेखक एवं प्रवक्‍्ताओ की यहू शिकायत है कि जैन साहित्य इतना समृद्ध होते हुए भौ उसके सुभाषित वचनो का ऐसा कोई संकलन आज तक नही हुआ, जो धार्मिक एवं नैतिक विचार दर्शन की स्पष्ट सामग्री से परिपूर्ण हो । कुछ संकलन हुए है, पर उनकी सीमा आगमों से आगे नहीं बढ़ी । मेरे मन मे, मूल आगम साहित्य के साथ-साथ प्रकीणेक, नियु वित्त, चूमि, भाष्य, आचायें कुन्दकुन्द, आचार्य सिद्धसेन, आचायं हरिभद्र आदि प्राकृत भाषा के मूधेन्य रचनाकारो के सुभाषित संग्रह की भी एक भावना थी । इसी भावना के अनुसार जब मैं जैन धारा के विशाल साहित्य का परिशीलनं करने लगा, तो ग्र्थ की आकारवृद्धि का भय सामने खड़ा हो गया । आज के पाठक की समस्या यही है कि वह सुन्दर भी चाहता है, साथ ही संक्षेप भी । सक्षिप्तीकरण की इस चृत्ति से और कुछ बीच-बीच में स्वास्थ्य अधिक गड़बड़ा जाने के कारण भाष्य-साहित्य की सुक्तियों के बाद तो वहुत ही संक्षिप्त दौली से चलना पड़ा । समयाभाव तथा अस्वस्थता के कारण दिगम्बर परम्परा की कु महत्त्वपूर्ण ग्रंथ- रारि एवं समदर्शी आचार्य हरिभद्र की अनेक मौलिक दिव्य रदनाषए किनारे छोड देनी पड़ी । भविष्य ने चाहा तो उसकी पुति दुसरे संस्करण मे हो सकेगी ।




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