भारतीय जेलों में पाँच साल | Bhartiya Jailon Mein Paanch Saal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नक्सलवादी जून १६७०। बिहार के हजारीबाग सेंट्रल, जेल की मेरी कोठरी में एक मेज़ लाकर रख दी गयी है । मेज के एक तरफ मैं बैठी हू आर दूसरी तरफ ठीक मेरे सामने पुलिस के छः या सात अधिकारी सादी वर्दी में बैठे है । उनमें से कुछ मेरी ओर शुकते हैं और हठपूर्वेक आरोप लगाना आरंभ करते हैं। उनके और मेरे चेहरे के बीच मुश्किल से एक फुट का फ़ासला है। दोष आराम से पीठ टिकाये बैठ हैं। वे ऊपर से काफी निश्चित मौर सदय दिख रहे हैं और ऐसा लगता है जैसे अपने शिकार से संतुष्ट होकर घूप खा रहे हों; लेकिन उनकी आँखें मुझ पर लगातार टिकी हैं । इनमे जो सबसे छोटा है वह मुझसे सवाल किये जा रहा है। उसकी छोटी लाल भाँखें उसके ऐयाश मांसल चेहरे में घंसी हुई हैं। चेहरे पर रूसेपन और कड़वाहट की झलक है, पर पूछताछ की प्रक्रिया में नियमित रूप से लगे होने के कारण उसके चेहरे पर कोई भाव नही उभर रहे हैं। तुम चीनी हो ।” गनहीं, मैं ब्रिटिश हूं ।” “मैं कहता हूँ तुम चीनी हो । तुम्हारा पासपोर्ट कहाँ है? ” *्कलकत्ता |” “तुम सूढं बोल रही हो। मेरे पास तुम्हारा पासपोर्ट है । देवोगी ?” उन लोगों ने कलकत्ता में मेरे एवसुर के घर से मेरे रुपयों-पैसों तथा अन्य सामान के साथ पासपोटट भी अपने कब्जे में ले लिया है । स्थल-मागंसे आते समय मैं जिन देशों से गुज्री थी, पासपोर्ट पर उन देशों की मुहरे देखकर वे चक्कर में पड़ गये हैं। “तुम चीन गयौ षौ?”




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