दीपदान | Deep Dan

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Deep Dan by राजेश्वर प्रसाद सिंह - Rajeshvar Prasad Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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्रघलंब कभी-कभी एेसे लोग मी सामने श्राति दै, जो हमारे निकट ट कर बैठ जाते हैं, श्रौर उन से बरबस श्रपनापा जुड़ जाता हैं। क्यों आते हैं थे हमारे सामने ? क्यों जुड़ जाता है उन से श्रपनापा ? पिताजी के एक मित्र) रघुबीर सहाय, की प्रेरणा से वे उस मुहल्ले में श्रवसे यथे। बड़ा साफ-युथरा, बड़ा स्वास्थ्यप्रद्‌ था वह मुहल्ला । अन्य मुहल्लों की तरह एक-दूसरे से सटे हुए घर वहाँ नहीं थे । कला की दृष्टि से तो वे निर्दोष न थे, और उन सब का सामूहिक रूप भी सुन्दर न था, किन्तु वे अ्रसुन्दर भी न थे । हर घर के आआगे-पीछे थोड़ी-थोड़ी खुली जमीन थी, जो शाक-सब्जी उगाने श्रोर पेड़-पौधे लगाने के काम श्माती थी | अन्य घरों जैसा अपना सी घर या | बहैत मला लगा सन लोगे की ) उसी दिन संध्या समयं जव वह सामान सँमालने-सजाने में अम्मा की सहायता कर रही थी, वह आया । लम्बा कद, गोरा रंग, सुडौल शरीर, निर्दोप नख-शिख - “नमस्ते, चान्चीजी 1 किचित सुस्कस कर, उसने कहा । “खुश रहो, मैया ! श्राओओो |” सहन पार कर के, वह दालान में पास श्ाकर खड़ा हो गया । जैसे एक मीनार पास झ्ाकर खड़ी हो जाय, और देखने वाला श्रपनी ही नजर में बौना-सा बन जाय ! कनखियों से उसने एक बार उसकी शोर देखा, शरीर गड़ी-सी जाने लगी । मन जाने केसा होने लगा । जी चाहा कि भाग कर ऊपर चली जाय, ग्रौर यहाँ से उसे देखे; उसे जाँचे, उसे परे | लेकिन पैर थे कि जैसे जकड़ गये थे फशं से, शरीर था कि बेबस हुद्आा जा रहा था|. “्रम्मा ने पूछा है, ाचवीजी,कि किसी वीज की जरूरत तो नहीं है ?*” १२




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