दीपदान | Deep Dan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
142
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)्रघलंब
कभी-कभी एेसे लोग मी सामने श्राति दै, जो हमारे निकट ट कर बैठ
जाते हैं, श्रौर उन से बरबस श्रपनापा जुड़ जाता हैं। क्यों आते हैं थे
हमारे सामने ? क्यों जुड़ जाता है उन से श्रपनापा ?
पिताजी के एक मित्र) रघुबीर सहाय, की प्रेरणा से वे उस मुहल्ले में
श्रवसे यथे। बड़ा साफ-युथरा, बड़ा स्वास्थ्यप्रद् था वह मुहल्ला । अन्य
मुहल्लों की तरह एक-दूसरे से सटे हुए घर वहाँ नहीं थे । कला की दृष्टि
से तो वे निर्दोष न थे, और उन सब का सामूहिक रूप भी सुन्दर न था,
किन्तु वे अ्रसुन्दर भी न थे । हर घर के आआगे-पीछे थोड़ी-थोड़ी खुली
जमीन थी, जो शाक-सब्जी उगाने श्रोर पेड़-पौधे लगाने के काम
श्माती थी |
अन्य घरों जैसा अपना सी घर या | बहैत मला लगा सन लोगे की )
उसी दिन संध्या समयं जव वह सामान सँमालने-सजाने में अम्मा
की सहायता कर रही थी, वह आया । लम्बा कद, गोरा रंग, सुडौल
शरीर, निर्दोप नख-शिख -
“नमस्ते, चान्चीजी 1 किचित सुस्कस कर, उसने कहा ।
“खुश रहो, मैया ! श्राओओो |”
सहन पार कर के, वह दालान में पास श्ाकर खड़ा हो गया । जैसे
एक मीनार पास झ्ाकर खड़ी हो जाय, और देखने वाला श्रपनी ही नजर
में बौना-सा बन जाय ! कनखियों से उसने एक बार उसकी शोर देखा,
शरीर गड़ी-सी जाने लगी । मन जाने केसा होने लगा । जी चाहा कि
भाग कर ऊपर चली जाय, ग्रौर यहाँ से उसे देखे; उसे जाँचे, उसे
परे | लेकिन पैर थे कि जैसे जकड़ गये थे फशं से, शरीर था कि बेबस
हुद्आा जा रहा था|.
“्रम्मा ने पूछा है, ाचवीजी,कि किसी वीज की जरूरत तो नहीं है ?*”
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