आदिपुराणमें प्रतिपादित भारत | Adipuranmein Pratipadit Bharat

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Adipuranmein Pratipadit Bharat by डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री - Dr. Nemichandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पुरोवाकू १३ दृष्टस संगीत सम्पूणं शरीर है, जिसमे शब्द मस्तिष्क है, स्वर हृदय तथा लय रक्त ह! इस प्रकार आदिपुराणमे संगौतका स्वरूप उपस्थित किया गया है । बताया गया है कि मन्दसप्तक हुदयसे गाया जाता है, मध्यसप्तक कंठ्से तथा तारसप्तक मस्तिष्कसे गाया जाता है । प्राचीन वाद्य एवं स्वरोकें आरोह-अवरो- हका चित्रण भी आया हं । प्रकृतिको समस्त क्रियाओं--षंहार तथा संचारका प्रतीकीकरण नृत्यकी भव्‌ धारणामे निहित हँ । नृत्यट्वारा अनेक प्रकारके भार्वोका सम्प्रपण किया गया है । सामाजिक तृत्योके समय संवेगो, विचारो, भावो आदिक जव समूहके सभी लोग साथ-साथ ग्रहण करते हूँ तव सामूहिक एकताका भाव जाग्रत होता ह । नृत्य हारा घृणा, देष, क्रोध, दुःख, आनन्द, हास्य, विस्मय आदि भावोका प्रदर्शन किया जाता है । आदिपुराणमे घार्मिक विद्वासों और री तियोकी अभिव्यल्जना वास्तुकलामे हुई है । समवदारणकी रचनामे सौन्दर्य-बोधके साथ धार्मिक भावना भी प्रस्फुटित हुई हैं । इस प्रकार कलाओका अंकन अपने पीछे परंपराओका इतिहास छिपाये हुए है । पष्ठ परिवर्तमे आर्थिक भौर राजनैतिक विचारोकी अभिव्यक्ति की गई है । आधिक दृष्टिसे भारत आदिपुराणके समयमे भजसे कही अविक सम्पन्न था | अत अर्थके समस्त अंगोका प्रतिपादन किया गया है । आदिपुराणकारका यह्‌ मत है कि दंडधरके अभावमे प्रजामे मस्स्य-न्याय प्रचलति हो जाता ह 1 दडके भय से ही समाजकी दुष्प्रवृत्तियोका नियन्त्रण किया जात्ता है । अत्त. दंडधरको भाव- श्यकताका वर्णन करते हए लिखा है-- दण्ड-भीत्या हि लोकोऽयमपथं नानुधावति। युक्तदण्डं धरस्तस्मात्‌ पार्थिवः पथिवीं जयेत्‌ ॥ --आदि० १६।२५३ अंतिम परिवर्तमे दर्शन और धर्म भावनाका सर्वेक्षण किया गया है । इस प्रकार इस ग्रन्थमे आदिपुराणमे प्रतिपादित तथ्योंके आाघारपर गुप्तो्तर- कालके भारतकी सास्कृतिक समृदिका लेखा-जोखा प्रस्तुत करनेका प्रयास किया हैं | इस रचनाक निर्माण ओर प्रकादनमे मुझे अनेक सहयोगी मित्रो और गुरु- जनोसे प्रेरणा प्राप्त हुई । मै सर्वप्रथम इस ग्रत्थको शीघ्र ही प्रकाशमे लाने वाले श्रीगणेगप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाकाके विद्वान्‌ मन्वी डर प्रो० दरवारीलार कोठिया एम० ए०, पी-एच० डी ०, न्यायाचार्य, शास्त्राचार्यका हूदयसे आभार स्वीकार करता हूँ । उनकी अनेक कृपाओोमेसे यह भी एक कृपा हँ कि जिसके कारण इसु गरन्थकी पाण्डुलिपि मेरी बलमारीमे वन्द न रहकर प्रेसको मुद्रणार्थं नीघ्र ही प्राप्त हो गई और उन्होने स्वयं ही प्रुफ-संशोधनपे घोर श्रमकर मेरी प्रकाशन-सम्बन्धौ




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