आदिपुराणमें प्रतिपादित भारत | Adipuranmein Pratipadit Bharat
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17 MB
कुल पष्ठ :
404
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री - Dr. Nemichandra Shastri
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पुरोवाकू १३
दृष्टस संगीत सम्पूणं शरीर है, जिसमे शब्द मस्तिष्क है, स्वर हृदय तथा लय
रक्त ह! इस प्रकार आदिपुराणमे संगौतका स्वरूप उपस्थित किया गया है ।
बताया गया है कि मन्दसप्तक हुदयसे गाया जाता है, मध्यसप्तक कंठ्से तथा
तारसप्तक मस्तिष्कसे गाया जाता है । प्राचीन वाद्य एवं स्वरोकें आरोह-अवरो-
हका चित्रण भी आया हं ।
प्रकृतिको समस्त क्रियाओं--षंहार तथा संचारका प्रतीकीकरण नृत्यकी भव्
धारणामे निहित हँ । नृत्यट्वारा अनेक प्रकारके भार्वोका सम्प्रपण किया गया है ।
सामाजिक तृत्योके समय संवेगो, विचारो, भावो आदिक जव समूहके सभी लोग
साथ-साथ ग्रहण करते हूँ तव सामूहिक एकताका भाव जाग्रत होता ह । नृत्य
हारा घृणा, देष, क्रोध, दुःख, आनन्द, हास्य, विस्मय आदि भावोका प्रदर्शन
किया जाता है ।
आदिपुराणमे घार्मिक विद्वासों और री तियोकी अभिव्यल्जना वास्तुकलामे हुई
है । समवदारणकी रचनामे सौन्दर्य-बोधके साथ धार्मिक भावना भी प्रस्फुटित हुई
हैं । इस प्रकार कलाओका अंकन अपने पीछे परंपराओका इतिहास छिपाये हुए है ।
पष्ठ परिवर्तमे आर्थिक भौर राजनैतिक विचारोकी अभिव्यक्ति की गई है ।
आधिक दृष्टिसे भारत आदिपुराणके समयमे भजसे कही अविक सम्पन्न था |
अत अर्थके समस्त अंगोका प्रतिपादन किया गया है । आदिपुराणकारका यह् मत
है कि दंडधरके अभावमे प्रजामे मस्स्य-न्याय प्रचलति हो जाता ह 1 दडके भय
से ही समाजकी दुष्प्रवृत्तियोका नियन्त्रण किया जात्ता है । अत्त. दंडधरको भाव-
श्यकताका वर्णन करते हए लिखा है--
दण्ड-भीत्या हि लोकोऽयमपथं नानुधावति।
युक्तदण्डं धरस्तस्मात् पार्थिवः पथिवीं जयेत् ॥
--आदि० १६।२५३
अंतिम परिवर्तमे दर्शन और धर्म भावनाका सर्वेक्षण किया गया है ।
इस प्रकार इस ग्रन्थमे आदिपुराणमे प्रतिपादित तथ्योंके आाघारपर गुप्तो्तर-
कालके भारतकी सास्कृतिक समृदिका लेखा-जोखा प्रस्तुत करनेका प्रयास किया हैं |
इस रचनाक निर्माण ओर प्रकादनमे मुझे अनेक सहयोगी मित्रो और गुरु-
जनोसे प्रेरणा प्राप्त हुई । मै सर्वप्रथम इस ग्रत्थको शीघ्र ही प्रकाशमे लाने वाले
श्रीगणेगप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाकाके विद्वान् मन्वी डर प्रो० दरवारीलार कोठिया
एम० ए०, पी-एच० डी ०, न्यायाचार्य, शास्त्राचार्यका हूदयसे आभार स्वीकार
करता हूँ । उनकी अनेक कृपाओोमेसे यह भी एक कृपा हँ कि जिसके कारण इसु
गरन्थकी पाण्डुलिपि मेरी बलमारीमे वन्द न रहकर प्रेसको मुद्रणार्थं नीघ्र ही प्राप्त
हो गई और उन्होने स्वयं ही प्रुफ-संशोधनपे घोर श्रमकर मेरी प्रकाशन-सम्बन्धौ
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