संक्षिप्त जायसी | Sankshipt Jayasi

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Sankshipt Jayasi by शम्भूदयाल सक्सेना - Shambhudayal Saxena

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ ) फिरहिं पाँच कोतवार सुर्भोरी । काँपे पाँव चपत वह पौरी॥ कनक-सिला गदि सीढ़ी लाई जगमगाहु गढ़ ऊपर ताई' ॥। नवौ खंड नव पौरी आओ तहूँ बजू-केवार । चारि बसेरे सौं चद, सत सों उतरे पार ॥५॥ नव पोरी पर दसवें दुबारा, तेहि पर बाज राज-घरियारा ॥ घरी सो बेठि गने घरियारी। पहर पहर सो झापनि बारी ॥। जबहीं घरी पूजि तेहिं मारा । घरी घरी घरियार पुकारा ॥। परा जो डॉड़ जगत सब डॉड़ा । का निचित मादी कर भाँड़ा ? ॥। तुम्ह तेहि चाक चढ़े हो काँचे । आण्ड रहै, न थिर होइ बाँचे ॥। घरी जो भरी घटी तुम्दद आऊ। का निचिंत होइ सोउ बटाऊ ? ॥ पहरि पहर गजर निति होई। हिया बजर, मन जाग न सोई ॥ मुहमद्‌ जीवन जल भरन रर्हैट घरी के रीति। घरी जो राई ज्यों भरी, ठरी, जनम गा बीति ॥६॥ पुनि चि देखा राज-दुश्मारा । मानुष प्ठिरहि पाड नहि बारा॥ हस्ति सिघली बोधि बारा) जनु सजीव सब ठाढ़ पहारा ॥।




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