कन्नडप्रान्तीय ताड़पत्रीय ग्रन्थसूची | Kannad Prantiy Tadapatriy Granthasuchi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना न्न्य 14 जैनवाश्चय पर एक दष्ि- यद्यपि जैन वाञमय बहत विशार है और यह प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी, गुजराती, कन्नड एवं तमिरु आदि कई मागों में विभवत है । पर प्रस्तुत ग्रन्य-तालिकामें प्रधानतः प्राकृत, संस्कृत तथा कन्नड इन तीन वाइ- मय के ग्रन्थ ही सम्मिलित हैं, इसलिपे यहां पर सिफं इन्हीं वाडमयों पर दृष्टि डालना मेरा अभीष्ट है । अवकादामाव भमी इसका अत्यन्त कारण हं । विज्ञ पाठकोको इतना अव्य जान लेना होगा कि दक्षिण भारतकी भाषाओंमें तमिल तथा कन्नड प्रयान हैं और इन दोनों भाषाओं को साहित्यिक रूप देने वाले जैन (दिगम्बर) ही हे 1 अस्तु, अब पाठकोंका ध्यान प्रस्तुत विवय पर आकर्पित करता हं । ब्रात वाडमय-यह मापा सुप्राचीन कालमें यहाँके आर्योकी बोल-चाल्की भाषा थी । इसी माषामें भगवान्‌ महाबीर एवं गीतमबद्धने अपने पुनीत सिद्धान्तोंका उपदेश और प्रचार किया था । इसी माषाको जैन और बौद्ध विद्वानोंने अपना कर विविध विषयक विपुल साहित्यको जन्म दिया । इसी भाषाके मौलिक साहित्यकी भिति पर संस्कृत भाषामें अनेक उत्तमोत्तम प्रन्थोंका निर्माण हुआ । विद्वानोंकी राय है कि संस्कृतके नाटक- साहित्यमें संस्कृत -मिन्न जिस भाषाका प्रयोग हमें दुष्टिगोचर होता हूँ, जिस भाषासे हमारे भारतवर्षकी वर्तमान अन्यान्य आं -माण्णओंकी उत्पत्ति हुई है और जो भाषाएँ भारतवर्षके कई प्रदेशों में भिम्न-मिन्न रूपमें बोली जाती हैं-इन सभी माषाओंका सामान्य नाम प्राकृत है । क्योंकि ये सभी भारतीय भाषाएँ एकमात्र प्राकृतके भिन्न-भिन्न रूपांतर हें, जो कि काल, देश आदि अन्यान्य कारणोंसे भिन्न-भिक्ष रूपोंमें परिवतित हुए हैं। जैसे अर्घमागधी प्राकृत, पालि प्राकृत, पंशाची प्राकृत, सौरसेनी प्राकृत, महाराष्ट्री प्राकृत ओर अपन्रंश प्राकृत आदि 1 सर ध्रियसनने वैदिक काल एवं उसके पूर्वकी सभी बोल-चालकी भाषाओंको प्राथमिक प्रकृत माना है। प्राकत भाषा-समूहकी यहीं पहली श्रेणी है। इसका समय ई० पूर्व ३००० से ई० पूर्वें ६०० तक निदिष्ट हैं। प्रथम श्रेणीको ये समस्त प्राकृत भाषाएँ स्वर एवं व्यंजनादिके उच्चारणमे तथा विमक्तियोके प्रयौगमं बेदिक भाषाके ही समान थीं । इसीसे ये भाषाएँ विभविनि-बहुल कहलाती हें । वैदिक युग्मे जो प्रादेशिक रकृत माणा बोल-चालके रूपमें प्रचलित थीं उनमें परवर्ति-काछमें अनेक परिवर्तन हुए । जैसे (१) ऋ, ऋ आदि स्वरोंका लोप होना (२) शब्दोके अंतिम एवं संयुक्त व्यंजनों का रूपांतर होना, (३) विभक्ति और वचन समूहका लुप्त होना आदि । जब इन परिवर्तनोंते उक्त कथ्य भाषाएँ अधिक मात्रामे रूपान्तरित हुई तब द्वितीय श्रेणीकी प्राकृत माषाओंका जन्म हुआ । इस श्रेणीकी ये प्राकृत माघाएँ भगवान्‌ महावीर और गौतम बुद्धके समय- से अर्थात्‌ ई० पूर्व छठी दाताब्दीसे लेकर ई० सन्‌ ९ मी अथवा १० मी शताब्दी तक प्रचलित रहीं । श्री महावीर एवं लद्धके समयमे उपर्युक्त सभी प्रादेशिक प्राकृत भाषाएँ द्वितीय श्रेणीके आकारमें भिन्न भिन्न प्रदेशमे कथ्य भाषाके तौर पर व्यवहूम होती थीं । उन्होंने अपने सिद्धान्त तथां उपदेशका प्रचार इन्हीं कथ्य प्राकृत भाषाओं मेंते एकमे किया या । वल्कि बुद्धे अपने शिष्योंको यही आदेश दिया था कि मेरा उपदेश संस्कृत-बद्ध न कर इस प्रचलित प्राकृत माषामें ही करना । इसका मुख्य कारण यही मालूम होता है कि साधारणसे साघारण जनता भी उनके सिद्धान्तोसे लाभ उढठविं । वास्तबमें यह मागं है मी अधिक लाभकारी । इसका रहस्य जैन मी खूब जानते “थे । इसीका परिणाम है कि वे भारतके भिन्न ्रदेशों में जैसे-जैसे फंकते गये बसे वैसे वहाँकी प्रन्तीय भाषामोमे नये- नये साहित्थोका निर्माण करते गये । मयं -माषा्गेको कौन कटे ! तमिल, कन्नड जैसी द्राविड साहिष्यकि भी । ज़न्मदाता मे ही कहे जा सकते हू । इन भाषाओं में प्राचीन से प्राचीन व्याकरण, अलंकार, छन्द, काव्य एवं बीति




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