आलोचना | Alochana

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Alochana by शिवदान सिंह चौहान - Shivdan Singh Chauhan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इतिहास का नया दष्टिकोश 07 ने रक्त-स॑चार किया श्रौर साथ ही उसे मांसल भी बनाया । ढाँचा 'मिश्रबन्धु विनोद का ही था; सामग्री भी वद्दी थी । शुक्लजी ने उस संग्रह से संकलन किया; खोज से प्राप्त नई सामग्री के झनुसार यत्र-तत्र तिथि, स्थान तथा प्रन्थ-संख्या सम्बन्धी संशोधन श्रौर विचार भी किया, लेकिन उनका मन तथ्यों की छानबीन की श्रोर उतना नहीं रमा । उनकी रस-दृष्टि तथा विवेचनशील प्रतिभा कवियों के मूल्यांकन मैं श्रधिक छुली । कवियों के जीवनवृत्त अ्रन्थ-सूी आ्रादि से श्रागे बढ़कर उन्होंने कवियों के साहित्यिक सामथ्य का उद्घाटन किया । सबकी रचना का नमूना देने का दंग तो ज्यों-का-त्यों रहने दिया, परन्तु नमूनों को अधिक प्रतिनिधि तथा उत्कृष्ट बनाने की चेष्टा की | कवियों के नामके पहले क्रमसंख्या देने का टंग भी वहीं रहने टिया, परन्तु प्रबृत्ति-साम्य तर युग के अनुसार कवियों को समुदायों मैं रखकर उन्होंने सामूहिक प्रभाव डालने की श्रोर ध्यान रखा । इसीलिए, कुछ प्रवाइ-पतित विशिष्ट कवियों को भी फुटकल खाते डाल देना पड़ा । इस तरह इतिहास के श्रादि, मध्य श्राघुनिक जेसे कोरे कालपरक विभाजन को उन्होंने वीरगाथा, भक्ति, रीति श्र गद्य-काल की भावपरक क्यारियों में पुनः रोपने का उद्योग किया; साथ ही इन सबका सामान्य परिचय देकर एक ऐतिहासिक प्रवाह टिखाना चाहा । उन्होंने प्रवाह की गति का उत्थान-पतन भी दिखाया श्रौर लोक-संग्रहः की कसौटी पर इतिहास के समाजोन्मुख श्र समाज-पराइमुस्व युगों मैं श्रन्तर बतलाया । कुल मिलाकर यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि शुक्लजी को जो इतिहास पंचांग के रूप में प्राप्त त्रा था उसे उन्होंने मानवीय शक्ति से श्रनु- प्राणित कर साहित्य बना दिया । बाबू साहब वह गहराई श्रौर बारीकी तो न निभा सके, लेकिन उन्होंने शुक्लजी के इति- हास के विच्छिन्न प्रवाह को क्रम-संख्या, रचनाशओं का नमूना श्रादि बातें घटाकर श्रविच्छिन-सा दिखलाना चाहा । हाँ, उन्होंने शुक्लजी की श्रपेक्षा राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थि- तिर्यो का खाता श्रौर लप्बा कर दिया । फिर तो इन इतिहासों के पीछे लगी संद्तिम, मध्यम, सरल श्रौर सुबोध अनेक छात्रो- पयोगी इतिहास-पुस्तके रां जिनमे नकल छिपाने के लिए यर्किचित्‌ शुक्लजी की तथ्य-सम्बन्धी भूलों का सुधार श्रौर अधिक-से-श्धिक कालों के नाम-परिवतन का सुकाव मिलता है। ये सभी प्रयत्न उसी सीमा मैं हुए, क्योंकि बह सीमा ऐतिहासिक श्रौर युगीन थी । युग-परिवर्तन के साथ ही शुक्लजी के ऐतिहासिक दृष्टिकोण तथा पद्धति की सीमाएँ; स्पष्ट होने लगीं । वस्तुतः इतिहास की वह ॒ प्रणाली उनके जीवन-जगत्‌-सम्बन्धी दृष्टिकोश से ही निर्धा- रित हुईं थी । उनके बाद. वाली पीढ़ी को “शुक्ल-इतिहास” में सामाजिक परिस्थितियों, साहित्यिक प्रवृत्तियों तथा साहित्यिक व्यक्तियों के बीच जो कार्य-कारणु-सम्बन्धी श्रसंगति दिखाई पड़ने लगी वह उनके श्रौर उनके युग के जीवन-जगत्‌-सम्बन्धी दृष्टिकोण की श्रसंगति थी । राष्ट्रीय झान्दोॉलन का वह गांधी-युग था जिसमें व्यक्ति श्रौर समाज नै यथोचित प्रनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित न हो सका था । मघ्यवर्गीय व्यक्ति-स्वातन्य-्ान्ोक्िन के पीछे शेष जन-समूद नत्थी-भर था । विचार व्यापक जन-समाज से चिन्न थे | यही कारण हे कि शुक्लजी के इतिहास में सामाजिक परिस्थितियाँ तथा साहित्यकार साथ-साथ रखे जाने पर भी एक-दूसरे से श्रलग हैं । जिस युक्ति से वे परिस्थितियों से उत्पन्न बताये जाते हैं. वह तकसंगत प्रतीत नहीं होती जेसे भक्त कवियों को मुसलमानी शासन की दासताजन्य निराशा से उत्पन्न बताना । युग-विभाजन करने में उनका “श्रौसतवाद” वाला




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