वैष्णव की फिसलन | Vaishnav Ki Fisalan

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Vaishnav Ki Fisalan by हरिशंकर परसाई - Harishankar Parsai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दिनि मे यह्‌ सव सोचता हं श्रौर रात को मे विचित्र सपने घ्राति है । एक रात सपना श्राया--राप्ट्र ने श्रकाल-उत्सव मनाना तय कर 'लिया है । कई क्षेत्रो में हो रहा है । एक क्षेत्र में श्रकाल-उत्सव मैंने सपने में देखा । आसपास के च।र-पाँच गाँवों के किसान, स्त्रियाँ, बच्चे इकट्ठे थे । पण्डाल सजाया गया था} मन्दी प्रकाल-समारोह का उद्घाटन करने झ्रानेवाले थे । पटवारी ने भूखों से चन्दा करके गुलाबों की मालाएँ कसवे से मंँगवा ली थी । स्त्रियाँ खाली मगल-घटों में सूखे नाले के किनारे की घास रखकर कतार में चल रही थी । ये गा रही शी--'भ्रम्के बरस मेघा फिर से न बरसो, मय्रल पड प्रकाल रे {' श्रोवरसीयर श्रौर मेट उनमें से अपने लिए छाँट रहे थे । “साव, उस देखो, केसी मटकती दहै 1 “ “अरे, मगर इस सामनेवाली को तो देख ! दो बार पूरी रोटी खा ले तो परी हो जाय 1 मगर साब, सुना है, तहसीलदार साव भी तथवियत फेंक देते है ।'” “अरे, तो “था प्रापर चेनल” ! सरकारी नियम हम थोडे ही तोडेंगे ।”' हुड्डी-ही-हड्डी । पता नही, किस गोंद से इन हड्डियों को जोड़कर 'प्रादमी के पुतले बनाकर खड़े कर दिये गये हैं । यह जीवित रहने की इच्छा ही गोद है । यह हड्डी जोड़ देती है । झँतें जोड़ देती है । सिर मील-भर दूर पड़ा हो तो जुड़ जाता है । जीने की इच्छा की गोद बड़ी ताकतवर होती है। पर सोचता हू, ये जीवित क्यो हैं ? थे मरने की इच्छा को खाकर जीवित हैं । थे रोज कहते हैं--इससे सो मौत श्रा जाय तो श्रच्छा ! पर मरने की इच्छा को खा जाते हैं । मरने की इच्छा में पोषक तत्त्व शोते हैं 1 भकाल~-उत्सद / १७




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