कला और संस्कृति | Kalaa Aur Snskrit
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
27 MB
कुल पष्ठ :
327
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)संस्कृति का स्वरूप र
करना द्रावश्यक है । देश के प्रत्येक भाग में इस प्रकार के प्रयत्न त्ावश्यक हैं ।
इस देश को संन्कृति की घारा ग्रति प्राचीन काल से बहती श्राई है। हम उसका
सम्मान करते ह, किन्तु उसक्र प्राणवंत तख को अपनाकर ही हम आगे बट
सकते हैं । उसका जो जड़ भाग हे उस गुरुतर बोभ को यदि हम टोना चाहें तो
हमारी गति मं श्रड़चन उतपन्न होगी। निरन्तर गति मानव जीवन का
रदान है । व्यक्ति हो या राट्र, जी एक पड़ाव पर टिक रहता है, उसका जीवन
टलने लगता हं । इसलिए; “चरंवेति चरेवेति” की घुन जब तक राष्ट्र के रथ-चक्रों में
गूजती रहती है तभी तक प्रगति आर उन्नति होती है; श्न्यथा प्रकाश अर
प्राणवायु क कपाट बन्द हौ जाते ह ग्रौर जीवन रध जाता दहै । हमं जागरूक रहना
चाहिए; ऐसा न हो कि हमारा मन परकोटा खींचकर ग्रात्मरत्ता की साध करने लगे ।
पूर्व और नवीन का मेल
पूवं ्रोर नूतन का जहाँ मेल होता है वद्दी उच्च संस्कृति की उपजाऊ
भूमि है । ऋग्वेद के पहले हो सूक्त में कहा गया है कि नये आर पुराने ऋषि
मेनां दही ज्ञनरूपी श्रगिनि की उपासना करत हं । यही च्रमर सय हं। कालिदास
न गुप्तकाल की स्वणयुगीय भावना को प्रकट करते हुए लिखा है कि जो पुराना
है वह केवल इसी कारण अच्छा नहीं माना जा सकता, ग्रोर जो नया हे उसका
भो इसोलिए; तिरस्कार करना उचित नहीं । चुद्धिमान् दोनों को कसौटी पर
कसकर किसो एक को अ्पनाते हैं । जो मूठ हैं उनके पास घर की बुद्धि का
टोटा होने के कारण वे दूसरों के मुलावे में आरा जाते हैं । गुप्त-युग के ही दूसरे
महान् विद्धान् श्री सिंद्धसेन दिवाकर ने कुछ इसो प्रकार के उद्गार प्रकट किष
थे--“जो पुरातन काल था वह मर चुका । वह दूसरों का था, श्राज क] जन यदि
उसको पकड़कर बैठेगा तो वह भी पुरातन की तरह ही मृत हो. जाएगा | पुरान
समग्र के जो विचार हैं वे तो अनेक प्रकार के हैं । कौन ऐसा है जो भलो प्रकार
उनकी परीक्षा किए, बिना श्रपने मन का उधर जनि देगा।
जनोऽयमन्यस्य शृतः पुरातनः पुरातनेगेव समो भविष्यति ।
पुरातनेष्िस्यनवस्थितेषु कः पुरातनाक्तान्यपरी च्य राचय॑त् ¢
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