अध्यात्मयोग और चित्त-विकलन | Adhyaatm Yog Aur Chitta-vikalan

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Adhyaatm Yog Aur Chitta-vikalan by वेंकटेश्वर शर्मा -Venkteshwar Sharma

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about वेंकटेश्वर शर्मा -Venkteshwar Sharma

Add Infomation AboutVenkteshwar Sharma

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
२ अध्यात्मयोग ओर चित्त-विकलन है कि यदि समाज के लिए उसे प्रासू भी देने पड़ें तो भी उसे हिचेकना नहीं चाहिए । ऐसी स्थिति में समाज के नियम उसे झटल श्र शाश्वत प्रतीत होते हैं। उसे लगता है, समाज की सुस्थिति खृष्टिजन्य संकल्प हे, तरतः समाज की उन्नति उसके लिएः अन्तिम लक्ष्य है और उसके नियमों का पूर्णतया प्रतिपालन उसका परम कन्तेव्य है। ऐसी स्थित्ति में जीवन के श्नन्य उच्चतर श्येयों को वह समाज के लिए ही, उसके विकास एवं संस्थिति के लिए ही ग्रहण करता है श्रौर उनकी प्राति के लिए सतत सचेष्ट रहता है। किन्तु इस प्रकार का जीवन-लक्ष्य एक श्रादशंमात्र है; उसका श्रनुसर्ण करना कठिन है । इसी श्राधार पर वह कहता दै--श्रादशं प्राप्त करना सम्भव नहीं है, उसके आसपास ही पहुँचा जा खकता है ।* इस प्रकार व्यक्ति समाज के नियम तथा समाज के विकासोत्कष-सम्बन्धी तत्वों के प्रति विशेष जागरूक रहता है । बहुधा यह देखने में श्राया है कि व्यक्ति श्रपने ही समाज को झन्य समाजों से श्रेष्ठ मानता है, अपने ही समाज के नियमों को वह दैवी समकता है। व्यक्ति दूसरे समाजो पर अपने समाज कौ धाक जमाना चाहता है | इस कारण बह जिस सुख की खोज मेँ श्रागे बदृता हे, उसे दी भूल जाता है। उसके स्थान पर वह यह मानने लगतां है कि.समाज जैसे एक कल्पित ध्येय के लिए ही श्रस्तित्व रखता दै ! बह चेष्टा करता है कि दूसरे लोग भी समाज का सिक्का मानें। इस बिचारधघारा में पड़कर मानव-समाज के श्रनेक उत्साही व्यक्तियों ने साम्राज्यों की स्थापना की । यही भावना “ब्रिटेन राज्य करे, उसकी ( उसके सिन्धु की ) लहरें राज्य करें, पिता-मूमिः एवं “मातृ-भूमि”* झ्रादि उद्घोषणों का रूप धारण कर विकसित हुईं । “समाज के सुख-साघन में ही उसका सुख है ।” एेखा समकर बह समाज के भीतर रहना पसन्द करता है | अपनी पूण स्वतन्त्रता को भी तिलांजलि देकर बह सीमाषद होता है श्रौर श्रपनी खारी शक्तियाँ समाज की उन्नति के लिए; लगाता है। फलतः समाज में उपकरणों की भरमार दो जाती है, संपत्ति बढ़ती है श्रौर सुख-सामग्री से दुनिया भर जाती है । उसकी इन्द्रियानुयूतियाँ जिन-जिन वस्तुझों तक पहुँच पाती हैं, उनकी उन्नति में बहू लग जाता हे--छथ्वी, समुद्र, आकाश सभी पर उसका ्रातंक छा जाता है। प्रकृति उसे प्रत्येक स्थल पर श्राहान करती-सी प्रतीत होती है । उसके श्राहान को स्वीकार कर वह दृश्य प्रपंच को वश में करता है। इस प्रकार व्यक्ति विषय-सुख या भौतिक सुख की प्राप्ति के लिए प्रकृति की सारी शक्तियों को झ्पनी प्रज्ञा की शुद्लामे बौध लेना चाहता हं । बह प्रकृति के अनुकूल झपने को परिवर्तित नहीं करता, बरन्‌ श्रपनी इच्छा के झनुकूल प्रकृति को मोड़ देना चाहता है | इस प्रकार की विचारधारा के झनुयाथी पश्चिम के रहनेवाले हैं। वे प्रवृत्ति के मूर्तिमान' अवतार हैं । वाद्य विषय उनके लिए प्रधान है । गति उनके लिए साधन श्र साध्य दोनों है। इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए वे प्रयल करते हैं। वे १116 ९ 18 छण भृणुतसंलृक, 970५001९. < ^्प्6 एष्यच पयार ल क्छ (दकलाक्पतः, ननगफछलणश्छत, के




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now