उत्तराध्ययन सूत्र | Uttradhayayan Sutra

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Uttradhayayan Sutra by श्री साधुमार्गी जैन - Shree Sadhumargi Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अ०~९ 4 ५ | ऋ है पक हि “विद हैं, व, 091 द्मप्पा-चेव दमेयच्यो, थप्पाह खलु दुदमो। अप्पा द॑तो सही होई, अरस्छिलोए प्रस्थ य ।११५॥ विपरीत जाने वाले सन का ही दमन करे, क्योकि श्राट्म दमन बडा कठिन हैं । ्रात्म दमन करने वाला इस लोक में श्रौर परलोक में सुखो होता हू ॥ १४५ ॥। बरें में झप्पा दंतो, संजमेश तवेश य । माऽहं पररह दम्मेत्तो, चंघशोहि बहेहि य ॥१६1। परवदा होकर दूसरों से वध श्रौर, बन्घनों द्वारा दमन 'किये जाने की अपेक्षा, अ्रपनी इच्छा से ही सयम भ्रौर तप से श्रात्म दमन करना श्रेप्ठ है ॥1१६॥। . पडिणीयं य चुद्धाणां, वाया अदुव कम्मणा | आवी बा ज्‌ वा रहस्से, णेव कुञ्जा केयाई वि ॥१५७॥ दूसरों के सामने अथवा एकान्त में अपने वचन या कमें से कभी भी गुरु (ज्ञानियों) के विपरीत आचरण नही करे 1१७।। ण पक्‍्खओ ण पुर, खेव किचाण पिंडुओ । श॒ जुभे उस्णा उरुं, सयखे ण॒ पड़िस्सुणे ॥१८1॥। झाचाये से कन्घा भिड़ाकर बराबर नहीं वेठे, उनके आगे भी नही बैठे ओर पीछे भी अ्विनीतता से नहीं .वेठे । इतना ' भी निकट नहीं बेठे कि श्रपने घुटने से उनके , घुटने का, स्पर्श, हौ जाय, तथा रय्या पर सोते या बेठे हुए ही उनके वचनों को नही सूने ।१८॥




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