जैनतत्त्वमीमांसा | Jain Tattvamimansa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३) स्वय पढ़ रहा है या दीपक पढा रहा है ? दोपक पढा रहा हैं यह तो कहा नहीं जा सकता, क्योकि ऐसा मानने पर दोपकके रहने तक उसका पढना नहीं रुकना चाहिए । किन्तु हम देखते हैं कि दीपकके सद्धावमें भो कभी वह पढ़ना है और कभी अन्य कार्य भी करने लगता है इससे मानूम पडता हँ करि दीपक तो निमित्तमात्र ह वस्तुत. वहं स्वय पठता है, दोपक वलात उसे पढाता नहीं । इस प्रकार जो नियम दीपकके लिए है वहीं नियम सब निमित्तोके लिए जान लेना चाहिए। निमित्त चाहे क्रियावान्‌ द्रव्य हो और चाहें निष्क्रिय द्रव्य हो, कायं होगा अपने उपादानके अनुसार ही । श्रत निमित्तका विक्ल्य छोडकर प्रत्येक ससारी जीवको प्रण उपादानकी ही सम्हाल करनी चाहिए 1 जो ससारौ जीव श्रषने उपादानकी सम्हाल करता ह वह भ्रपने मोक्तरूप इष्ट प्रयोजनजी सिद्धिम सफल होता है श्रौर जो ससारी जीव उपादानकी उपेक्षा कर अ्रपने अज्ञानके कारण निमित्तोके मिलानेके विकल्प करता रहता हँ वह्‌ भ्रल्ानी हुमा ससारका पात्र वना रहता है } का्यत्यत्तिमें निमित्तोका स्थान है इसका निपेव नही श्रौर इसलिए चाह्य दृषटिसे विवेचन करते समय शस्नोमे निमित्तके अ्रनुसार कार्य होता है यह भी कहा गया ह 1 परन्तु यह सव कथन उपचरित ही जानना चाहिए । व्यवहारनय पराश्रित होनेसे ऐसे हो कथनको स्वीकार करता हैं इसलिए मोक्षमागमें उसे गौर कर स्वाघीन सुखके कारणभूत निश्चय- नयका श्राश्रय लेनेका उपदेश दिया गया है । ससार श्रवस्थामे निश्चयके साथ जहाँ जो व्यदहार होता हैं, होझो । पर इस जीवकी यदि ऐसी श्रद्धा हो जाय कि जहाँ जो व्यवहार होता है वह पराश्रित होनेसे हेय है ओर निश्चय स्वाश्रित होनेसे उपादेय है तो ऐसे व्यवहारसे उसका विगाड नही । विगाड तो व्यवहारको उपादेय मानकर उससे मोक्षकार्यकी सिद्धि माननेमें है 1 अतः मोक्तेच्छुक प्रत्येक प्राणोको यही श्रद्धा करनी चाहिए कि मोक्कार्यकी सिद्धि मात्र निश्वयका ्राक्रय लेनेसे दी होगो,




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