जैन तत्त्व मीमांसा | Jain Tattv Mimansa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आत्मनिवेदन १७ मन्दिर' इस नामस प्रस्तुत पृस्तकके प्रकाडानका भार मैने स्वयं वहन किया है यदि यनुकूता रही भौर उचित सहयोग मिल सका तो कविवर वनारसीदासजी, कविवर दौच्तरामजी, कविवर भूधरदासजी, कविवर भैया भगवतीदासजी, कविवर भागचंदजी मादि प्रौढ़ अनुभवी विद्ानोने अध्यात्मके रहस्यको प्रकारमें कनेवाला जो भी साहित्य लिखा है उसे संकलित करके योग्य सम्पादन भर टिप्पण भादिके साथ इस नामसे प्रकाशित करनेका मेरा विचार है। तथा इसी प्रकारका जो भी संस्कृत प्राकृत साहित्य होगा उसे भी इसी नामके अन्तगंत यथावसर प्रकाशित किया जामगा । इत्तना अवक्य है कि यह स्वयं कोई संस्था नहीं है भोरन इसे संस्थाका ङ्प दनेका मेरा विचार ह, अतएव जिन जिन महानुभावोंके सहयोगसे यह साहित्य प्रकाशित होगा वह प्रकाशित ह्ोनेके वाद उनके स्वाधीन करता जाठँगा। अध्यात्म जैनधमंका प्राण है मौर ऐसे साहित्यस उसके रहस्यके प्रकाशमें आनेमें सहायता मिलती है तथा साहित्यका यह प्रमुख अंग पुरा होना चाहिए, मात्र इसी पुनीत अभिप्रायसे मेरी इसे व्यवस्थित सम्पादन संगोधनके साथ प्रकाशित करनेकी भावना है, अन्य कोई हेंतु नहीं है । तथा इसी भावनावश यह पुस्तक भति स्वल्प मूल्यमे सवं-साघारणके किए सुलभ रहै, उसकिए मने इसका मूल्य मात्र १) रखा है । इससे छागतमे जो भी कमी होगी उसकी भविष्यमें पुत्ति हो जानेकी भाशा है । इस प्रकार प्रस्तुत पुस्तकका प्रारम्भसे लेकर उसके प्रकाशित होने तकका यह्‌ संक्षिप्त इतिहास है । इसमें पूवम उल्लिखित विद्वाचु, त्यागो तथा जन्य प्रगट शौर भप्रगट जिन-जिन पुण्य पुरुषोका हाथ है उन सवका मँ आमारी ही नहीं कृतन्न मी हं । मव तौ यहं पुस्तक प्रकाशित होकर सबके समक्ष भा ही रही हैं। हमें भरोसा है कि मार्गंप्रभावनाकें लिए प्रवचन भक्तिसे प्रेरिति होकर किये गये इस मंगल कार्यमें भव तक हमें सबका जो उत्साहपूर्ण सहयोग मिला है, उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि ही होगी | मोक्षमार्गमें जो मेरी अनन्य अभिरुचि है यह उसीका फल है । निरचयसे इसमें मेरा कर्तृत्व नामको भी नहीं है । इसलिए उसी अभिप्रायसे तत्त्व- जिन्ञासु इसे स्वीकार करें । २।/३८ भ्दनी, फूलचन्द्र सिद्धांतशास्त्री वाराणसी २०-८-६०




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