बापू की छाया में | Bapu Ki Chaya Main

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१९ अक्षरोंक्रे नाम पूछ लेता । रातकों सोते समय और सुबह आठते समय खाटठमें पड़ा पड़ा जून अक्षरोंकों घोकता रहता। सुबह अपनी रोठी, किताब, पट्टी आदि लेकर फिर खेत पर पहुंच जाता। रास्तेमें कोओ पढ़ा-लिखा लड़का या आदमी मिल जाता तो अन्य अक्षरोंके नाम पूछ छेता। धीरे धीरे मेने बारहखडी पूरी की। जो विषय मुझे याद होता असे पुस्तकमें पढ़ता। मेरी याद अक्षरोंकी सड़क पर चलती। भिस प्रकार मैं कुछ पढ़ने गा था। जब में छोटा ही था तब मेरे अक चाचाने मेरी मातासे कहा कि यह लड़का ठाला रहता है। क्यो न मेरे ढोर चराया करे? में सुन रहा था। अनकी बोली मुझे जितनी प्यारी छूमी कि मैंने मांसे स्वीकार करा लिया कि में सिन चाचाजीका काम करूंगा । और फिर ओक साल तक सवा रुपया मासिक लेकर मेंने अनके ढोर चराये। १८ वर्षकी अवस्थामें २५ जनवरी १९१७ को में फौजके घुड़सवारोंमें २६ नंबर रिसालेमें भरती हो गया और मार्च १९२१ में समरी कोर्ट मार्शल (फौजी अदालत) द्वारा दो मासकी सजाके बाद नाम काटे जाने पर घर आ गया। जिसका जिक्र पुस्तकर्में आ चुका है। दादीजी १९१७ के अगस्तमें चरु बसी थीं। २२ वर्षकी अवस्थामें चाचाजीने मेरी शादी कर दी और खुद मन्यासी बनकर भगवानके भजनमें लूग गये। यहां तक कि फिर अनके दर्शन भी न मिल सके। मेरी पत्नी जानकीदेवी बड़ी सरल, सुन्दर, अुदार और समझदार थी। छेकिन भुस बेचारीका ओौर मेरा साथ अधिक न रहा। होता भी कैसे ? विधाताका विधान तो दूसरा ही था। जिसलिओ वह मुझे रूगभग तीन वर्षमें ही मुक्त करके' चली गआऔ। बचपनसे ही मेरी मनोवृत्ति साधु- संगतकी थी । हमारे जिका गंगा-किनारा गंगाजीके सारे बहावमें सर्वश्रेष्ठ व रमणीय है। और वहां पर बड़े बड़े साधू-संत साधना करते थे । जब घरसे फुरसत मिलती मैं गंगाके किनारै ञुनके सत्संगमेः १५-२० रोज जाकर रह आता। अुन दिनों वहां पर अड़िया बाबा, हरि बाबा, भोले बाबा, दोलतरामजी (अच्यूत स्वामी ), शंकरानन्दजी, निर्मछानन्दजी, अआग्रानंदजी आदि संतोंसे मेरा परिचय और सत्संग हुआ। अंड़िया बाबाकी मुझ पर खास कपा रही। “नारि मुओी घर संपति नासी, मूंड मुंड़ाय भये संन्‍्यासी ।” जिस न्‍्यायसे कपड़े रंगनेका विचार भी मेरे मनमें आया। लेकिन भिक्षाका अन्न खाना मेरे स्वभावके अनुकूल नहीं था। जिसलिओ वह रंग मुझ पर न चढ़ सका । और पूर्वेजन्मके कुछ पुण्योंके प्रतापने मुझे कर्मयोगी बापूजीकी छायामें




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