Book Image : धर्म - Dharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जीवन-व्यवस्था में विश्व-समन्वय मेरी गुजराती पुस्तक जीवन-व्यवस्था का अखिल भारतीय साहित्य अकादमी ने सन्‌ १९६६ का प्रथम पुरस्कार न दिया होता तो उसकी ओर हिन्दी के प्रकाशकों का ध्यान शायद ही जात हालांकि मुझे यह कबूल करना चाहिए कि हिन्दी प्रकाशकों की दृष्टि दिन-ब-दिन काफी अखिल भारतीय होती जा रही है। अनेकों ने जीवन- व्यवस्था का हिन्दी अनुवाद करवा कर प्रकाशित करना चाहा किन्तु में हमारे नवजीवन प्रकाशन मन्दिर के साथ आत्मीयता से बंधा हूँ। उसी ने यह हिन्दी संस्करण प्रकाशित करने की तत्परता बताई। भारतीय संस्कृति आज तक प्रधानतया धर्म-प्रधान ही रही है और भारत भाग्य- विधाता ने भी भारत को दुनिया के प्रधान धर्मों का धाम बना रखा है। चीन के कॉनफ्युशियस और लाओत्से की धार्मिक परम्पराओं को यदि हम बाजू पर रख दें तो हम कह सकते हैं कि दुनिया के सबके सब धर्म भारतीय जनता को प्रेरित कर रहे हैं और भारतीय चिन्तन से गषण भी प्राप्त कर रहे हैं। आज हम वैज्ञानिक दृष्टि से समाज-व्यवस्था का और मानवीय संस्कृतियों का स्वतन्त्र चिन्तन भल ही करें मनुष्य-जाति नें भाज तक धार्मिक प्रेरणा से ही सामाजिक जीवन का विकास किया हैं। और मनुष्य-जाति की सब संस्कृतियाँ अभी तक धर्म- प्रधान ही रही हैं। अथवा हम ऐसा भी कह सकते हैं कि मानवी संस्कृति को जिन- जिन सार्वभौम विचारों ने और जीवन-दृष्टि ने प्रेरणा दी है उन विचारों और दृष्टियों को धर्म के नाम से ही पहचानना चाहिए। हमारे पश्चिम के विज्ञान के उपासकों ने जो जीवन-दृष्टि समस्त जगत को दी है वह एम नया धर्म ही है और अर्थ-व्यवस्था को तथा राजनीतिक सत्ता को प्रधानता देकर दुनिया में जो साम्यवाद प्रचलित हुआ हैं उसे भी एक आधुनिक शथवा अद्यतन जड़बादी धर्म ही कहना चाहिए। भारत की गांधी-प्रणीत सर्वोदय-दृष्टि भी दुनिया का एक सन्तोषप्रद नया धर्म बन जाय ता तमिक भी आश्चर्य महीं। भले ही धर्मों ने आज तक आत्मा परमात्मा इहलोक ओर परलोक एवं पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म और मोक्ष का ही प्रधानतया चिन्तन किय। हो और ईश्वर के अवतारों को धर्म-संस्थापक माना हो सब धर्मों का मूल उद्देश्य




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