भारतीय दर्शन का इतिहास | Bhartiy Darshan Ka Itihas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भागवत पुराण |] [ ५ (पूव) है जो कार्य की समाप्ति के पण्चात्‌ दीघंयाल तक विद्यमान रहता है तथा उचित समय पर उचित एवं झथुम प्रभाव उत्पन्न करता है । स्पृत्ति-साहित्य के सोन[वेद गाने जाते हैं, प्रतः उसे प्रामाणिक समझना नादिए, उसकी सामग्री गा मूल सदि वेदों तक नहीं खोजा जा राकता है तो भी सह अनुमान द्वारा सिद्ध होता है कि उक्त बेदिक मूल-पाठ अ्रस्तित्व में रहा होगा स्परृति तभी ग्रमान्य समझी जानी चाहिये जबकि किसी विशेष गझ्ादेश अथवा तथ्य के कथन में बेदों द्वारा उसका प्रत्यक्ष व्याघात किया जाय । अनतएव स्पृति-ग्रन्य सामान्यतया वेदों के क्रमानुवर्ती माने जाते है। यद्यपि वास्तव में स्मृति-ग्रन्थ परवर्त्ती युग में विभिन्न कालों मे चित्ते होने के कारण कई गयीन प्रत्ययों और कई नवीन श्रादर्शों का श्रीगणेश करते हैं, पर कुछ स्प्रृतियों में पुराणों श्रौर स्मृतियों फे उपदेशों को बेदिक उपदेशों से निम्नतर स्तर का माना गया हे स्पृत्ति और थेदों के सम्बन्ध पर कम से कम दो भिन्न दृष्टिकोण हैँ। प्रथम दृष्टिकोण के अनुसार यदि स्मृतिर्या वेदों से विपरीत हों, तो स्पृति के मूल-पाठ वी इस प्रकार व्याग्या करनी चाहिए कि वहु बेदिक मूल-पाठ के संदर्भ में सहमत हो जाय, श्र यदि ऐसा सम्मव न हो तो स्थप्रत्ति के मूल पाठ को अमान्य समना चाहिये) अन्य विद्वानों के अनुसार विपरीत स्मृति मूल पाठ को अमान्य ही समझता चाहिये। मित्र मिश्र, शवर एवं भट्ट शाखाओं के उपयुक्त दो मतों पर टीका करते हुए कहते हैँ कि पहले मत के अनुसार यह संदेह हो जाता है कि वेदों से विपरीत स्मृति के मूल पाठ का लेखक त्रुटियों से मुक्त नहीं है, श्रतएव बेदों से श्रविपरीत स्मृति के घूल पाठों को भी दोपपूर्ण समझा जा सकता है जिनका स्रोत वेदों में नहीं खोजा जा सकता। हितीय मत के अनुधार स्प्रति को मान्य समझा जाता है क्योंकि कोई यह तलिश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि वे वेदों से अविपरीत मूल-पाठ, जिनका स्रोत वेदों में नहीं खोजा जा सकता, यथार्थ में वेदों में अविद्यमान हैं । जिनमें सामंजस्य की कोई ग्रुजायश न हो, ऐसे वेदों से विपरीत मूल-पाठों की दशा मे मी, स्मृति के आदेश वैदिक आदेशों से विपरीत होने पर वैकल्पिक रूप से मान्य समझने जा ? न हि ज्योतिष्टोमादि-यागस्थापि धर्मत्वं ्रस्ति, प्रपूर्वस्य धर्म॑त्वाभ्युपगमात्‌ 1 - शास्त्र-दी पिका, पृ० ३३, वम्बई, १६१५। ২ विरोधे त्वनपेक्ष्य स्थादस्ति ह्मनुमानम्‌ ! -““मभीमांसा-सुत्र, १, ३, ३। + श्रतः सर परमो धर्मो यो वेदाद्‌ श्रवगम्यते श्रवरः सतु विज्ञेयः पुयेराणादिपु स्मृतः तथा च -वेदिको धर्मों सुख्य उत्कृष्टत्वात्‌, स्माते: अ्नुकल्पः अप्रकृष्टत्वात्‌ । -“वीर मित्रोदय-परिभापषा-प्रकाश” में “व्यास-स्वृति/ से उद्बृत पृ० २६ 1




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