विक्रमांकदेवचरितचर्चा | Vikramank Devacharitacharcha
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
196
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(९)
यशोवतंसं नगरं सुरायां कमन्नगर्वः समरोत्सवेषु ।
न्यस्तां स्वहस्तेन पुरन्दरस्य यः पारिजात्तस्रजमाससाद् ॥
सर्ग १, पद्म ८६ |
लीजिए पारिज्ञात की माला जयसिंह के गले
“में पड़ गई । विक्रमाडु देव के आश्रय में रह कर
” उसकी ओर उसके वंशजं की स्तुति करना कचि
का धम्म था; यह हमने माना; परन्तु फिर भी
येग्यायाग्य का विचार करना भो उचित था।
नितान्त असम्भव बातें का ऐतिहासिक काव्यो
मैन वणेन करना ही अच्छा था । बात यह है
कि, जिस दृष्टि सेहम छाग इन काव्यो के अव
देखते हैं उस हृष्टि से उस समय काग न देखते
थे । काव्य चादे पेतिदासिक हा, चाहे पीराणिक,
चाहे काल्पनिक, उसे कवि लोग साहित्यशास्तर
के ही नियमानुसार लिखते थे भरर सम्भावनां
अथवा असखम्भावना का विचार न करके नायक
के चरित का, जहाँ तक उनसे हे! सकता था
तद्दाँ तक, उच्च से उच्च करके दिखलाते थे। जान
पड़ता है, इन्हों कारणां से ज्िल्हण ने चालुक्य-
वंशोय राजाओं का अमानुषी कृत्य करनेवाले
बतलाया है । अस्तु; अप्रासक्ुक बातों प्रोर
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