विक्रमांकदेवचरितचर्चा | Vikramank Devacharitacharcha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(९) यशोवतंसं नगरं सुरायां कमन्नगर्वः समरोत्सवेषु । न्यस्तां स्वहस्तेन पुरन्दरस्य यः पारिजात्तस्रजमाससाद्‌ ॥ सर्ग १, पद्म ८६ | लीजिए पारिज्ञात की माला जयसिंह के गले “में पड़ गई । विक्रमाडु देव के आश्रय में रह कर ” उसकी ओर उसके वंशजं की स्तुति करना कचि का धम्म था; यह हमने माना; परन्तु फिर भी येग्यायाग्य का विचार करना भो उचित था। नितान्त असम्भव बातें का ऐतिहासिक काव्यो मैन वणेन करना ही अच्छा था । बात यह है कि, जिस दृष्टि सेहम छाग इन काव्यो के अव देखते हैं उस हृष्टि से उस समय काग न देखते थे । काव्य चादे पेतिदासिक हा, चाहे पीराणिक, चाहे काल्पनिक, उसे कवि लोग साहित्यशास्तर के ही नियमानुसार लिखते थे भरर सम्भावनां अथवा असखम्भावना का विचार न करके नायक के चरित का, जहाँ तक उनसे हे! सकता था तद्दाँ तक, उच्च से उच्च करके दिखलाते थे। जान पड़ता है, इन्हों कारणां से ज्िल्हण ने चालुक्य- वंशोय राजाओं का अमानुषी कृत्य करनेवाले बतलाया है । अस्तु; अप्रासक्ुक बातों प्रोर




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