जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग - 1 | Jain Bauddh Aur Giita Ke Aacharadarshanon Kaa Tulanatmak Adhyayan Bhaag-1

Jain Bauddh Aur Giita Ke Aacharadarshanon Kaa Tulanatmak Adhyayan Bhaag-1 by सागरमल जैन - Sagarmal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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~ २२ ~ गीता कै त्रिगुण सिद्धान्त से तुलना की गई ह । अन्तिम उन्नीसवें मध्याय मे जन आचार का प्राचीन एवं अर्वाचीन संदर्भो में मूल्यांकन क्रिया गया ह । कर तज्ञताज्ञापन प्रस्तुत गवंषणा में जिन महापुरुषों, विचारकों, लेखकों, गुरुजनों एवं मित्रों का सह- योग रहा है उन सबके प्रति आभार प्रदर्शित करना मैं अपना पुनीत कर्तव्य समझता हूँ। कृष्ण, बुद्ध और महावीर एवं अनेकानेक ऋषि-महषियों के उपदेशों की यह पवित्र धरोहर, जिस उन्होंने अपनी प्रज्ञा एवं साघना के द्वारा प्राप्त कर मानव-कल्याण के लिए जन-जन में प्रसारित किया था, आज भो हमारे लिए मार्गदर्शक हैँ और हम उनके प्रति श्रद्धावनत्‌ हैं । लेकिन महापुरुषों के ये उपदेश, आज देववाणी मंस्कृत, पालि एवं प्राकृत मे जिस रूप में हमे संकलित मिलते हैं, हम इनके संकलनकर्ताओों के प्रति आभारी हूँ, जिनके परिश्रम के फलस्वरूप वह पवित्र थाती सुरक्षित रहकर आज हमें उपलब्ध हो सको है । सम्प्रति युग के उन प्रबुद्ध विचारकों के प्रति भी आभार प्रकट करना आवश्यक हूँ जिन्होंने बुद्ध, महावीर और कृष्ण के मन्तव्यों को युगीन सन्दर्भ में विस्तारपूर्वक बिवे- चित एवं विश्लेषित किया हैं। इस रूप में जन दर्शन के मर्मज्ञ पं० सुखलालजी, उपाध्याय अमरमुनि जी, मुनि नथमलजी, प्रो० दलसुखभाई मालवणिया, बौद्ध दर्शन के अधिकारी विद्वान्‌ धमनिन्द कौसम्बी एवं अन्य भनेक विद्वानों एवं लेखकों का भी मैं आभारो हूँ, जिनके साहित्य ने मेरे चिन्तन को दिशा-निर्देश दिया है । में जन दर्शन पर शोध करने वाले डो० टाटिया, डॉ० इन्द्रचन्द्र शास्त्री, डँ° पद्म राजे, डाँ० मोहनलाल मेहता, डॉ० कलूघटगी, डॉ० कमल चन्द सोगानी एवं डॉ० दयानन्द भार्गव भादि उन सभी विद्वानों का भी आभारी हूं, जिनकं शोध ग्रन्थों ने मुझे न केवल विषय और शैली के समझने में मार्गदर्शन दिया वरन्‌ जैन ग्रन्थों के अनेक महत्त्वपूर्ण सन्दर्भो को बिना प्रयास के मेरे लिए उपलब्ध भी कराया है। इन सबके अतिरिक्त मैं विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं क॑ उन लेखकों के प्रति भी आभारी हूँ, जिनके विचारों से प्रस्तुत गवेषणा में लाभान्वित हुआ हूँ । उन गुरुजनों के प्रति, जिनके व्यक्तिगत स्नेह, प्रोत्साहन एवं मार्गदक्शंद ने मुझे इस कार्य में सहयोग दिया है, श्रद्धा प्रकट करना भी मेरा अनिवायं कतंव्य हैँ। सर्वप्रथम मैं सोहाद, सौजन्य एवं संयम को मूर्ति श्रद्धेय गुरुवर्य डॉ० सो० पी० ब्रह्यों का अत्यन्त ही आभारी हूँ । अपने स्वास्थ्य की चिन्ता नही करते हुए भी उन्होंने प्रस्तुत प्रन्थ के अनेक अंको ध्यानपू्वंक पढ़ा या सुना एवं यथावसर उसमे सुधार णवं संशोघन के लिए निर्देश भी किया । मैं नहीं समझता हूँ कि कंवल शाब्दिक आभार प्रकट करने मात्र से मैं उनके प्रति अपने दायित्व से उऋण हो सकता हूँ ।




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