मौली | Maulii

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Maulii by श्री पहाड़ी - Sri Pahadi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मोली रे है | जसे कि यह हमारी जिन्दगी को चालू रखने के लिये चाहिये ही । यह राज साथ दे, तब हमें अपने को चलाये रखने में सहूलियत होगी । इसमे छोई सन्देह नहीं है | शरीर को रोमांचित करने वाली भावनाये एक जरूरत है न! किन्तु तुम्हारी फ़ुरसत ! यह तकाजा ! जैसे कि तुम ग्रप्ना ऊँची बाड़ वाला काली टोपी लगाये, दस बजे कोट जाने के लिए. अपने जीने से उतर रहे हो | में कमरे में बिस्तर पर लेटा, रजायी आड़े पुकार रहा हूँ--'गोविन्द जी !? तुम्हारी वह कोट की इमारत मुझे खूब पसन्द है । वहाँ नाशपाती, खुमानी ओर आइू के पेड़ों को रोज देखकर, आज जव उनकी याद श्राती है, तो उनको खाने दिल मचल उठता है। ग्रोर वट्‌ वेले ! उनका क्‍या नाम है? जो बाहर बरामदे के खम्भों से उलभी रहती हैं । तुमको तो याद होगा न ? खैर ! लेकिन वह ऊँची चोटी, जहाँ से चोखम्भे, नन्‍्दादेवी, खूब बरफ से ढकी दीख पड़ती हैं । आस पास कितना घना जंगल है| कितनी हरियाली है| लगता है कि नियति ने जीवन-परहेज के लिये वह उपयुक्त जगह बनायी होगी | फिर लीला ! पिछले साल सब पत्रों में मेंने लीला के बारे में न जाने क्या क्या लिखा होगा। लीला सुन्दर है। उसकी नीली आँखें खूब प्यारी लगती हैं। वह मेरी भावना है। मेरे जीवन को चलाये रखने का हथियार है । में मुर्दा हूँ और वह लीला वहाँ जीवन फैलाए रहती है । लीला ! उसका एक छोटा बच्चा था। बच्चा लीला को उभार देता। लीला बच्चे के पीछे लुका-छिपी करती ठीक लगती थी ! लीला के शहर छोड़ने के बाद काफी बेचेनी मेरे मन में रही | जब एक दिन सुना, लीला ने बच्चे की मोत पर, अपने को सुन्दर कपड़ों से देक, एक छोटी कंटरिया से मिद्दी तेल की बोतलें निकाल, अपने पर छिड़क, दियासलाई की रोशनी से अपने को बुझा दिया; तब मुझे बड़ी हँसी आयी थी। श्रौरग्धोखा देकर दुनिया की दृष्टि से उठ, जब सोचता हूँ कि मँ ठीक.




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