आषाढ का एक दिन | Aashad Ka Ek Din

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Aashad Ka Ek Din by मोहन राकेश - Mohan Rakesh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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झड्ू, १ श्फू इसे तुम्हारे हाथ में सौप देंगे ।'*'मल्लिका, इसे श्रन्दर ले जाकर तब्प पर या किसी आस्तरण पर ”' [अस्विका सहसा श्न्दर से आती है ।] अ्रसम्विका : इस घर के तत्प श्र शभ्रास्तरण हरिरणज्ञावकों के लिए नहीं हैं । सल्लिका : तुम देख रही हो माँ *! श्रम्बिका : हाँ, देख रही हैं । इसीलिए तो कह रही हूँ । तत्प श्र आआस्तरण मचुष्यों के सोने के लिए है, के लिए नहीं । कालिदास : इसे मुझे दे दो मल्लिका ! का भाजन नीचे रख देता है श्रौर बढ़कर हरिश- छशावक को शभ्रपनी वाँहो में ले लेता है ।] इसके लिए मेरी बाँहों का श्रास्तरण ही पर्याप्त होगा । में इसे घर ले जाऊँगा। [वार की ओर चल देता है । दन्तुल तीक्ष्ण दृष्टि से उसे देखता रहता है ।] दन्तुल : श्र राजपुरुष दन्तुल तुम्हें ले जाते देखता रहेगा ! कालिदास : यह राजपुरुष की रुचि पर निभंर करता है । | बिना रुके या उसकी श्रोर देखे ख्योढ़ी मे चला जाता है।] दन्तुल : राजपुरुष की रुचि-झरुचि वया होती है, सम्भवत: इस- का परिचय तुम्हें देना श्रावश्यक होगा । [कालिदास वाहर चला जाता है । केवल उसका देंव्द ही सुनाई देता हैं ।| १- 'मास्तरणु--विछावन




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