वैशाली की नगरवधू | Vaishali Ki Nagar Vadhu
श्रेणी : उपन्यास / Upnyas-Novel, जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10.01 MB
कुल पष्ठ :
422
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)झ्ाखेट ४६३
यह काम सोच विचार कर किया ज्ञायगा, अभी यह मधुर कुरकुर
चख कर देखो ।” उन्होंने हँसते २ एक टुकड़ा स्त्रण-
पेन के सुख में दस दिया )
हठात् अम्बपाल्ी का मु सपेद हो गया और स्वणंसेन जड़
हो गये । इसी समय एक' सयावक गजना से वन, पर्वत हो
। हरी २ घास चरते हुए अश्व उछुलने श्रोर हिनहिनाने लगे, पतियों
हा कलाव तुरन्त बन्द हो गया ।
परन्तु एक ही कण में स्वणंसेन का साहत लौट शाया । उन्होंने
कहा-''शाध्रता काजिए देवी, सिंह कहीं पास ही है ।” उन्होंने अ्र्वों को
प्क्ेत किया, रच कनोती कांटतें श्रा खडे हुए । झश्व पर अस्वपाली को
भवार करा स्तयं अश्व पर सवार हो, पर शर सम्घान कर वे सिंह
किस दिशा में है, यही देखने लगे ।
अम्बपाली वसी भी भयभीत थी, अश्व चंचल हो रहे थे । अम्ब-
पाली ने स्वर्ण सन के निकट अश्व लाकर भीत सुद्रा से कहा--“'सिंह
कया बहुत निकट है ?”
शरीर तत्फाल ही फिर एक विकट गन हुआ | साथ ही सामने बीस
हाथ के धन्तर पर साड़ियों में एक॑ मटियाली बस्तु हिलती हुईं दीख
पढ़ी । अम्बपाली और स्वणंतेन को सावधान होने का शवसर नहीं
मिक्ञा । अकह्मात् ही एक भारी वस्तु शम्बपाली के श्रश्व पर झा पढ़ी ]
झअश्व अपने आरोही को ले लडखडाता हुआ खड्ड में जा गिरा । इससे
ह्वणसेन का श्रश्तर मडककर अपने आरोही को ले तीर की भांति भाग
चला | स्व्सुंसन उसे चश में नहीं रख सके ।
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