वैशाली की नगरवधू | Vaishali Ki Nagar Vadhu

Vaishali Ki Nagar Vadhu by आचार्य चतुरसेन शास्त्री - Acharya Chatursen Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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झ्ाखेट ४६३ यह काम सोच विचार कर किया ज्ञायगा, अभी यह मधुर कुरकुर चख कर देखो ।” उन्होंने हँसते २ एक टुकड़ा स्त्रण- पेन के सुख में दस दिया ) हठात्‌ अम्बपाल्ी का मु सपेद हो गया और स्वणंसेन जड़ हो गये । इसी समय एक' सयावक गजना से वन, पर्वत हो । हरी २ घास चरते हुए अश्व उछुलने श्रोर हिनहिनाने लगे, पतियों हा कलाव तुरन्त बन्द हो गया । परन्तु एक ही कण में स्वणंसेन का साहत लौट शाया । उन्होंने कहा-''शाध्रता काजिए देवी, सिंह कहीं पास ही है ।” उन्होंने अ्र्वों को प्क्ेत किया, रच कनोती कांटतें श्रा खडे हुए । झश्व पर अस्वपाली को भवार करा स्तयं अश्व पर सवार हो, पर शर सम्घान कर वे सिंह किस दिशा में है, यही देखने लगे । अम्बपाली वसी भी भयभीत थी, अश्व चंचल हो रहे थे । अम्ब- पाली ने स्वर्ण सन के निकट अश्व लाकर भीत सुद्रा से कहा--“'सिंह कया बहुत निकट है ?” शरीर तत्फाल ही फिर एक विकट गन हुआ | साथ ही सामने बीस हाथ के धन्तर पर साड़ियों में एक॑ मटियाली बस्तु हिलती हुईं दीख पढ़ी । अम्बपाली और स्वणंतेन को सावधान होने का शवसर नहीं मिक्ञा । अकह्मात्‌ ही एक भारी वस्तु शम्बपाली के श्रश्व पर झा पढ़ी ] झअश्व अपने आरोही को ले लडखडाता हुआ खड्ड में जा गिरा । इससे ह्वणसेन का श्रश्तर मडककर अपने आरोही को ले तीर की भांति भाग चला | स्व्सुंसन उसे चश में नहीं रख सके ।




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