शिक्षण - विचार | Shichan Vichar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१९ । शिक्षण-विचार रंजन, रहता है । वह्‌ व्यायामरूप 'कर्तव्य' नहीं बन पाता । यह वात सभी प्रकार की रिक्षाओं पर জাম্‌ करनी चाहिए । शिक्षा एक कर्तव्य हे , एसी कृत्रिम भावना कौ अपेक्षा रिक्षा का अथे आनन्द है, यह्‌ प्राकृतिक ओर उत्साहभरी भावना पेदा होनी चाहिए । पर क्या हमारे वच्चो मं आज एसी भावना दीख पड़ती है ? “शिक्षण आनन्द है यह तो दूर, शिक्षण कतव्य हू , यह्‌ भावना भी आज प्राय: दिखाई नहीं पड़ती। आज के छात्र- वर्ग में गुलामगिरी की एकमात्र यह भावना प्रचलित हे कि शिक्षण माने सजा”। बच्चा ज्यों ही कुछ जिन्दादिली या स्व॒तन्त्र प्रवृत्ति की झलक दिखाने लगता है, त्यों ही घरवाले कहने लगते हें: इसे अब पाठशाला में बाँध रखना चाहिए।' पाठशाला माने क्‍या ? बाँध रखने की जगह ! अर्थात्‌ इस पवित्र का में हाथ बँटानेवाले शिक्षक हुए इस सदर जेल के छोटे-वड अधिकारी ! | शिक्षा का काम पर यह दोष हे किसका ? शिक्षणविषयक हमारे जो मत हें और तदनुसार हमने जिस पद्धति का, या पद्धति के अभाव का अवलम्बन किया, उसीका यह दोष हे । छात्र की शिक्षा अनजाने या सहज होनी चाहिए। बचपन में बालक अपनी मातृभाषा जिस सहज-पद्धति से सीखता है, उसकी आगे की शिक्षा भी उसी सहज-पद्धति से होनी चाहिए। नन्‍हा बच्चा व्याकरण का अर्थं नहीं जानता ।.परः वह्‌ कभी माँ आया” नहीं कहता। मतलब यह कि वह व्याकरण समझता है। भले ही उसे व्याकरण' शब्द




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