विश्व वाणी | Vishv Vani

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जनवरी १६४३ ] हां 'डैनी” 'सोज़” और शुची, यष्ट इनके जातीय नाच हैं और श्रपनी जगद् पर. खूब हैं । चितराल के ऊपरी यूबे के 'श्रम्रि-परिक्रमा श्रौर (राजहँंस के नाच अपनी किस्म फी अनोखी चीज़ें हैं। * हालांकि रियासत का रक़वा ख़ासा बड़ा है पर श्रावादी डेढ लाख सेश्रधिक नहीं । खेती-बाड़ी पर लोगों का गुज़ारा है श्रौर शगान व নী কি ভিলা उन्हें कोई टेक्स नहीं देना होता । न स्कूल, न अस्पताल; न रेडियो, न सीनेमा और न अख़बार | लोग श्रज्ञान के वैभव से: मालामाल हैं। छः महीने बकफ़ में दबे ` पदे रहते हैं और बाक़ी छुः महीने टामकटोइयां मारते फिरते है । यानी हम सचमुच एेसी जगह पच शये ই জী समाधिस्थली से भी श्रधिक प्रशांत थी। फलों की बहुतात है औ्रौर उन्हें बाइर ले जाना असंभव है । इसलिये दो पैसे सेर के द्विसाब से अंगूर श्रौर सेब ख़रीद लीजिये। जब हम चितराल की वादी कौ सैर कर चुके फ़ैजी अफ़सरों और हिज़ द्वाइनेस की मेहमानों से थक चुके और ताज़ी हथा व नये वातायरण ने निज की और देश की समस्याश्रों की याद थोड़ी देर के लिये भुला दी, तो हमने ललचाई हुई भांखों से पर्वतमाला को देखा जो हमारे चांरों श्रोर तिरबुलन्द खड़ी हुई थी। उत्तर मे तिचंमीर की चोटी दुहन की तरद्द बफ़ का धंषट डाले कोहसे में छिपी हुई थी | इसकी उँचाई कोई २५ दज़ार फ़ीट होगी। इसके पीछे रूस की सीमा शुरू होती है। चितराल शहर में लगभग ४० मील की वीध पर खड़े धोकर कांकिये तो 'लंगरकिशन! नामी रूस को हरावल चौकी दिखाई पड़ेगी। हमें न उधर जाने का श्रव- काश था और न साहस | या फिर तिचमीर के नीचे नीचे द्वोते हुये मस्तूज की राह गिलगिट से काश्मीर निकल सकते ये । पर इसके लिये भी बड़े समय और प्रबन्ध की ज़रूरत थी। हमें तो हिंदूकुश के काफ़िरों! को देखना बदा था जो रियासत के पछुवाहें एक दुगंम धाटी मे श्ऱगरनि तीमा की तलइटी में रहते हैं। हिन्दूकुश की सैर ११ লিল পল ০৭ পল পি পল আপ পিল न स न न न শি ^ ~ ५०. ५ ¢ [४1 शायद आपने कमी क्राफ़िरिस्तानः का नाम सुना हो। यह अ्रफ़ग़ानिस्तान के पूरद का एक दूबा. हे और . इसी का एक सिलसिला ऊँचे-ऊँचे पदाड़े। को चीरकर चितराल रियालत में घुत झ्राया है | जैता कि नाम से जाहिर है यां के रहने वाले 'काफ़िरः यानी मूत्ति- पूजक हैं। अफ़ग़ानिस्तान के सब काफ़िर पिछले पचास सालों के श्न्दर मुसलमान द्वो गये और अत्र उनके तुते का नाम नूरिस्तान' कर दिया गया है। कार्रिर लेदे कर श्रव चितराल में रद्द गये हैं। उनके दो क़बीले बे--लाल और काले! । इनमें से सब लाल काफ़िर मुसल्मान हो गये, केवल काले काफिर श्रपने मत पर अल रहे हैं। किसी क्षमाने में यद्द लोग काले कपड़े पहिनते थे, इसीलिये इन्हें यह লাম मिला। बरना देखने में यह यूरोपियन से कम गोरे-चट्टे नहीं। काफ़िरों के इतिहास की ठीक-ठीक ख़बर किसी को नहीं। कोई इन्हें किसी भटफे हुये यहूदी क्राफ़िले की श्रौलाद बतलाता हे तो कोई सिकन्दर के नामलेवा यूनानियों की सन्‍्तान कहता है। किसी का ज़याल है कि यह उन पुराने आयों की यादगार हैं जो मुसत्मानों से श्रपने धमें के सुरक्षित रखने के लिये जंगलों श्रौर पहाड़े में जा छिपे थे । मालूम नहीं कब से यह काफ़िर यहाँ रस-बस रहे हैं | इतिहास में इनका ज़िक्र सबसे पहिले तैमूर ने अपनी डायरी (तुझ़क) में किया है। इसके बाद [17091 मामी पादरी ने सन्‌ १६६७ म (रा ০01119%. লালী দ্গিতান্থ ঈ दइनक्री चर्चा किया। यह सुनकर कि यह लोग मुतलमान नहीं हैं, उसने सोचा कि दो न हो ईसाई द्वोंगे। मध्य एशिया से जो महान वाणिज्य-पथ (11208 1२०४४) चितराल द्वोता हुआ हिन्दुस्तान आता था, उ8 पर आने जाने वाले ার্ম- नियन सौदागरों ने यही अ्रक्वाद यूरोप में फैला दी। इस भते मे भ्राकर पादरी (गध्ट्ज० २०६ ने सन्‌ १६७५ के लगभग काफ़िरों के देश की यात्रा की। उसे निराशा का मुंह देखना पडा क्योंकि बह लिखता है कि “यद लोग मूर्तिपूजक हैं। मद्दादेव की पूजा




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