बिहारी बोधिनी | Bihari Bodhini

Bihari Bodhini  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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डर मथम मत _ झ्लंकार--काकुचक्रोकि योर विशेषोक्ति विद्यमान कारण चन्यों तऊ न कारज होय ।... . दो०--अधर धरत हरि के परदः ओठ डोठि पट जोदि । हरित बाँस की बाँसुरी इन्द्र घलुए सी होहि ॥२३॥ _ शब्दाथ--झघर न्होठ । डीठि न दृष्टि। पट न पीताम्यरा जोतिन छुटा । हरित दरा सच्ज | ः मावाथे--ज्योंदी श्रीकृष्ण मपनी बंशी होठ पर घरते हैं त्योही उस . चंशी पर होठ की लाल रंग की ृष्टि कीं सफेद काले छोर लाल रंग की श्र पीतास्वर की पीली छटा पढ़ती है तब बह हरे बॉस की चंसी इन्द्रघलुष के समान कई रंगबाली हो जाती है । झ्लंकार--उपमा श्र तदुरुण । नल फालकाने कन्कककन्न्य €+ € वयः्सन्धि वशन दो०--छुटी नः-सिसुता की कलक सकसकयों जोवन अंग । दीपत्ति देह दुहन पिंलि दिपत ताफूता रंग ॥९४। शब्दार्थ--सिसुता शिशुता बचपन । जोवन जवानी । दीपति देह नदेह की दीप़ि शरीर की चमक । दिपत स्‍० चमकती है । ताफ- तारंग न घूप छाँह की तरह । ताफता घूपछाँह नाम का रेशमी कपड़ा । +. मावार्थ-लड़कपन की भकलक अभी नहीं छूटी आर जवानी की कैलक शरीर में आ चली है। दोनों अवस्था्ों के मेल से शरीर की छटा घूपछाँह के रंग की तरह दो रंगी-सी चमकती है । विशेष --चयःसंघि नायिका । .... अझलंकार--वाचक लुप्ोपमा | दो०--तिय तिथि तरनि किसोरबय पुन्यकाल सम दौंन | कौहू. पुन्यनि पाइयत वैससस्थि संक्रान २५४




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