मरु - प्रदीप | Maru Pardeep

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Maru Pardeep by श्री रामेश्वर - Sri Rameshvar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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~ मरु-प्रदीप श्रोर कुछ पूछना है या बस ! पूछना बहुत कुछ है। जब तक ठम्हारे पास बैठंगी पूछती रूँगी। सिवाय पूछने के--तुमसे लेने के--मैंने किया ही क्या है * में साकार प्रश्न हूँ जो उठते-बैठते, चलते-फिरते, खाते-पीते, सोते-जागते, चला करता है। आ्रादि नहीं--मध्य नहीं--अंत नहीं--जिसकी रेखाओं में 'दिग-दिगन्त की शुन्यता वक्र हो कर स्पंदित होती रहती है---मंकृत হী उठती है| भेरे प्रश्नों की न चलाओ ठुम | उनकी थाइ नहीं है | उनके अ्रर्थ न हो--संगति न हो--संठुलन न हो पर जो नहीं है उसको लेकर मेरे प्रश्न नहीं चलते | ओर मेरे सामने जो है, वह बेमानी हो सकता है, उसे बेकार ओर बेनिशान कद्दा जा सकता है, पर उसके अस्तित्व से इंकार नहीं किया जा सकता | तुमने मुझे बताया नहीं क्या करेगी इन बातों को जान कर ! यह में भी नहीं जानती । जानने के पहले यह जाना भी नहीं जा सकता । पर जिन बातों को जानने में कोई हज न हो, उन्हें जान लेना चाहती ह | तुम्हीं ने उस दिन कहा था, जानना ही होना है | मुझे मालूम है, में कमी हो नहीं सकती | जानकर ही क्‍यों न अपनी सृष्णा की आंशिक पूर्ति करूँ | यही जानने को बाकी बचा है | सारी विद्या पढ़ ली है न ! सुन। लड़के हों या लड़कियाँ, उन्हीं प्रोफेसरों को तंग करते हैं और बनाते हैं जो पग-पग पर अपने प्रोफेसर होने के लिए. माफी माँगते चलते . हैं--मेरा मतलब है, मौन भाषा में | जो अध्यापन को आत्मश्रमि- व्यक्ति का माध्यम न मान कर सुविधा और सौदा सममते हैं-..-जो.अपनी दीनता कौ भावना कोएक नकली बौद्धिक आमिजात्य-सचक अलगाव के द्वारा जाहिर करते हैं--जिनके पास स्वार्जित जीवबनसार और ` स्वतंत्र अन्तसज्योति नहीं होती--जो विचारों की स्वतंत्रता और दृष्टि की विभिन्नता का आदर नहीं कर पाते | मुझे कोई तंग नहीं करता---




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