हिन्दू धर्म की समीक्षा | Hinduu Dhramakii Samiiqsaa

Hinduu Dhramakii Samiiqsaa by तर्कतीर्थ लक्ष्मण शास्त्री - tarktirth lakshman shastriनाथूराम प्रेमी - Nathuram Premi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रास्तावेक नागपुर विश्वविद्यालय और उसके कुलगुरु नाना साहब केदारका में अत्यन्त आमभारी हूं जिन्होंने मुझे हिन्दू-धर्म-समीक्षा-विषयक व्याख्यान देनेके लिए. आमन्त्रित किया और फिर उन व्याख्यानोंको प्रकाशित भी कराया । इन व्याख्यानोंमें हिन्दू धर्मकी समीक्षा ऐतिहासिक पद्धति और ऐति- हासिक समाजशास्त्रकी दृष्टिसे की गई है । इनमें हिन्दू-धर्मकी जो आलोचना की गई है, वह अनेक शिक्षितोंको जचेगी नहीं; इतना ही नहीं बल्कि उन्हें ऐसा भी लगेगा कि यह एक नया पाखण्ड अथवा धर्म-विध्वंसक कार्य है। धर्म मानव-जातिके लिएः अफीम है, इस प्रकारके विचारसे प्रेरित होकर यह समीक्षा नहीं की गई है । किन्तु इस समीक्षाके मूलम यह प्रेरणा है कि धर्मकी समीक्षा ही सारी समीक्षाओंका स्वा प्रारम्भ ই। € 11009 01610857001 19112107019 9,191 1011102 01 ?]] 09710101501 .--1১2] 110৮5 ) पहले व्याख्यानमें आगेके दूसरे ओर तीसरे व्याख्यानके विचारोंकी आधारभूत विचार-सरणि रक्खी गदं है । इसमें प्रत्यक्ष रूपसे हिन्दू धमकी समीक्षाका प्रारंभ नहीं क्रिया गया है, इससे कुछ विषयान्तर-सा जरूर मालूम होगा। परन्तु आधुनिक समाज-राख्रकी ओर मानव-जातिः शासत्रकी धर्म-मीमांसासे बहुत ही थोड़े लोग परिचित हैं, इस लिए अगले व्याख्यानोंके विचारों ओर उन विचारोंकी सामान्य भूमिकाको अच्छी तरह समझनेके लिए, दूरान्‍वय दोपका भागी बनकर भी, धर्मे- समीक्षासम्बन्बी और धर्म-विकाससम्बन्धी सामान्य तत्त्व, समाजपरि- वर्तनसम्बन्धी सामान्य सिद्धान्त, संस्कृति-मीमांसा ओर मानवजाति- शास्त्ज्ञोंकी धर्मोपपत्तिको उपस्थित करना पड़ा है । अक्सर पंडितोंमें समाज- रचनाके नियमो, संस्कृति ओर धर्मको एकमेकं कर डाटनेकी आदत होती है । इसके कारण अनेक रेखक हिन्दू धमका विवेचन करते हुए गोटाला कर কান ই । इहसकिए पहटे व्याख्यानमे समाज -र्चना, संस्कृति ओर धमेके सम्बन्धोका खुलासा करना पड़ा ।




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