जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग - 2 | Jainendra Siddhant Kosh Bhag - 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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करण ~~ -. १ | करण सामान्य निर्देश १ | करणका श्रं शन्दिय व परिणाम) इन्द्रिय व परिणार्मोको करण कदनेमें हेतु । २ | दृशकरण निदश १ | दशकरणोंके नाम निर्देश | २! कम प्रकृततियों्सप यधासम्भव १० करण अधिकार निदश ! ३ | गुणस्थानोंमें १० करण सामान्य व विशेषका श्रधि- कार নিহা। ३ | त्रिकरण निर्देश जिकरण साम निर्देश । २ | सन्यकत्व व चारित्र प्राप्ति विधिमें तीनों करण अवश्य होते है । +% | मोहनीयके उपशम क्य व क्तयोपशाम विधि सें जिकरणोंका स्थान --दे० वह वह नाम # । अनम्तानुवन्धीकी विसयोजनामें त्रिकरणोंका स्थान -दे° विसंयोजना २ | त्रिकरणका माहात्म्य। ४ | तीनों करणोंके कालमें परस्पर तरतमता। ५ | तीनों करणोंकी परिणामविशुद्धियों में तरतमता । ६ | तोनों करणोंका कार्य भिन्न-भिन्न कैसे है। 3 | अध प्रवृत्तकरण निर्देश १ | श्रप:प्रवृत्ततरणका लक्षण। २ | श्रथ!प्रवृत्तकरणका काल ! २ | प्रति समय सम्भव परिणामोंकी सस्या संदृष्टि व यंत्र । ४ | परिणाम संख्यामें अंकुश व लागल रचना । ५ | परिणामोंकी विशुद्ाके अविनाग प्रतिच्छेद, सृष्टि व यंत्र। ६ | परिणामोंकी विशुद्धताका अल्पवहुत्व व उसकी सर्प - वत्‌ चाल ७ | अ्रष,प्रवृत्तकतरणके चार आवश्यक 1 सम्यक्त्व॒प्राप्तिति पहले भी सभी जीवेकि परिणाम अध्‌ “करण रुप ही होते दे । डी अपूवकरण निर्देन अपूर्वकरणका लक्षण । अपूबकरणका काल प्रतिसमय सम्भव परिणामोकी सख्या । परिणामोंक्री विशुद्धतामें वृद्धिकम श्रपूवंकरस्णकरे परिणामों की सदृष्टि व यत्र । अपूवकरणके चार आवश्यक | 7 कद 2 छ छ ~ 5 २. दकरण निर्देश अपूर्वकरण व अ्रघःप्रवृत्तकरणमें कथचित्‌ समानता व श्रसमानता । अनियृत्तिकरण निर्देश श्रनिवृक्तिकरणका लक्षय । अनिवृत्तिकरणक्रा काल | अनिवृत्तिकरणमें प्रतिसमय एक ही परिणाम +8 পি লি [4 द्‌ सम्भव है । ४ | परिणार्मोकी विशुद्धतामें वृद्धिक्रम । ५ | नाना जीवॉमें योगोंकी सद्ृशताका नियम नहीं है । ६ | नाना जीवोंमें काण्डक घात आदि तो समान होते हैं, पर प्रदेशवन्ध असमान । ७ | अनिवृत्तिकरण व अपूर्व करणमें अन्तर । ८ | परिणार्मोद्ी समानताका नियम समान समयवतीं जीवोंमें ही है । यह केसे जाना । ६ | यरुणश्रेणी आदि अनेक कार्योका कारण होते हुए भी परिणामों में अनेकता क्यों नहीं । १. करणसामान्य निर्देश १, करणका लक्षण परिणाम व इन्द्रिय-- रा वा ।६।१३।१।९२२।२६ करण चुरादि । =चगु आदि इन्द्धिपोंको करण कहते है । ध. १/१ १,१६।१८०/१ करणा परिणाम है । परिणामा । =करण হাল্কা অধ २, इन्द्रियों व परिणामोंकी करण संज्ञा देनेमे हेतु-- ध ६।१,६-८/४/२१७।५ कध परिणामाण करण स्ण्णा । ण एम दोसो, असि-बासीणं व सहायतमभावच्रिवक्खाए परिणामाण करणत्तुब- लंभादों 15प्रश्न-परिणामोकी 'करण' यह सज्ञा कैसे हुई १ उत्तर-- यह कोई दोष नही, क्योकि, असि (तलवार ) और वासि ( बसूला ) के समान साधक्तम भावकी विवक्षा्मे परिणामौके करणपना पाया जाता हे 1 भ आ।वि [२०/७१/४ क्रियन्ते रूपाव्गोचरा चबिज्ञप्तय एभिरिति करणानि इन्द्रियाण्युच्यन्ते क चिक्करणशब्देन । = क्योकि इनके द्वारा पादि पदार्थोक्त ग्रहण करनेवाले ज्ञान किये जाते है इसलिए इन्द्रियोको करण कहते हैं 1 २. दकरण निर्देश 9, दशकरणोंके नाम निर्देश गो. क मु (९३७५६९१ बेश्वुकदरणकरर्णं सकममौकट टदीरणा सत्तं । उद्‌~ युवस्राम निधत्त णिकाचणा होदि पडिपयडी ।४३७। = बन्धु, उत्कर्पण, संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा सच्च, उदय, उपङ्ञम, निधन्ति ओर नि काचना ये दश करण प्रकृति प्रकृति प्रति सभवे है । টু বি 7६ ₹৯ ৯৬০ २. कमप्रकृतियोंमें बथासम्मत्र दम करण अधिकार निर्देश गोक भू 122१,४४४/६ ६३१४ ५५ सकमणाकरणुणा णवकऋरणा हॉति सव्य आण । सेसाण दसक्रणा अपुव्वकरणोत्ति दसक्रणा 1०९! वंश जैनेन्द्र सिद्धान्त कोण




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