संस्कृत साहित्य शास्त्र में वक्रोक्ति सम्प्रदाय का उद्भव और विकास | Sanskrit sahity sastra me vkrotik sampraday ka udbhav aur vikas
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
53.26 MB
कुल पष्ठ :
419
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)डे यहाँ लक्ष्मण सीधे यह न फह र. कि प्रतिज्ञा भैंग होने पर तुम्हें भी सार डालूंग बढ़ ढंग से कहते है कि अभी वह रास्ता संकीर्ण नहीं हो गया । निपते कि मारा गया वालि गया है । इसी प्रकार वक़ोक्ति को रमणीय छटा लक्ष्मण के शूर्पणख्रा के साथ उस वा्तलिप में देखी जा सकती है जिसमें कि वे परिहास-पूर्वक सीता की निन्दा और शूपणखा की प्रशंसा करते है । शूर्पणखा को राम के पास भेजते हुर वे सोता के विषय में कहते है-- रुनां विर्पामसतीं कराला निर्णतोदरीय । भार्या वृदूधा परित्यज्य त्वाशेवंघभजिष्यति। | को हि रुपशिं प्रेष्ठ सन्त्यज्य वरवर्णीनि । मानुषीषु वरारोहे कर्यादू भाव विचक्षण 11 यह वक़ोक्ति-परम्परा कोई नवोन नहीं है । कौषित्य के अर्थशास्त्र में भी इस ओर सैँकेत प्राप्त होता है ।कौटिल्य ने जिसे स्तुतिनिन्दा या प्रतिलोमस्तव कहा है उसमें स्पष्ट ही बक़ोक्ति का प्रतिपादन है । किसी काने को सुन्दर आँखों वाला कहना अथवा अपना अहित या अनुचित कार्य करने वाले की प्रशंसा करना बक़ोक्ति नहीं तो और क्या है 1 कौटिल्य का वण्डविधान है -- शोभानाक्षिमन्त इति काणसश्नादीनां स्तुतिनिन्दायां दूवादश पणों दण्ड | इसी तरह राजा किसी के उम्र अप्रसनन हैं इस बात का पता उसे राजा के प्रतिलोमस्तव से लगा लेना चाहिर। यहाँ तक फिम अलंकार- संग्रह में तो वढ़ोक्ति वर्लकारविशेष का यही लक्षण दिया गया है -- कोपात प्रियवदुक््तियाँ वक़ोक्तिः कथ्यते यथा कवि अमपूक और बाणभटू आदि ने अपने काव्यों में वक़ोक्ति शब्द का प्रयोग भी लगभग इसी अर्थ में किया है । भास के रृपको में भी वक़ोक्ति के सुन्दर दाहरण उपलब्ध होते हैं 1 अविमारक में विदूषक जब चेटी से कहता है-- अत्थि रामास्ण णाम णट्सत्थ॑।तस्सिं पैच सुलो जा असम्पृण्णे संवच्छे मर पठिदा तो चेटी बढ़ ढँग सो कहती है जाणामि जाणामि अय्यस्य कलोइदो इीदिसो मेरामिगोगों इसी प्रकार अविभारक विदुयाधर से सीधे यह न पूछ कर कि आप का जन्म किस कल में 1- रामायण अर्ण्यका0 18 /11-12 2- अर्थशास्त्र 5/ 18/4 उ- द्रष्टव्य वहीँ 5/5/5%5 4- अलैकारझंग्रह पु0 57 5- अविमारक पृ0 16
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