गृहस्थ धर्म भाग - 2 | Grahast Dharam Bhag-2

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Grahast Dharam Bhag-2 by जवाहरलाल महाराज - Javaharlal Maharajशोभाचन्द्र भारिल्ल - Shobha Chandra Bharilla

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जवाहरलाल महाराज - Javaharlal Maharaj

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शोभाचन्द्र भारिल्ल - Shobha Chandra Bharilla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जवाहर किरणावली | _ (रे. भन सहित वाणी के यथार्थ होने को नास सत्य, है) यानी जैसा देखा, समका और सुना है, दूसरे को कहते समय मन और वाणी का ठीक वैसा ही प्रयोग हो; उसे 'संत्यः कहते है। देख, सुन ओर सममकर सम्यक प्रकार से जो बात अपनी ससक मे आयी हैं, ठक वही सुनने वाले क यी सममः में आवे, उसका नास सत्य! हे जिसके द्वारा अवास्तविक बात, विच्वार और कायं का चिरोध होता है, तथा जिसके प्रकट हो जाने परे अवास्तविक विचार, बातें आर कायें नहीं ठहर सकते है, उस 'संत्यः कहते है अथात्‌ वॉसरतविक विचार, बात और कार ही सत्य हैं.। महाभारत में कहा हैः--- छ्रविक्रारितमं सस्यं सर्ववर्शपु भारत | सभी वर्णो सदा विकार रहित रहने बाले का नाम दी सत्य! है| सत्य की मूर्ति किसी पापाण की बनी हुई नहीं होती इसका कोड्‌ स्थान दी नियत ह्‌ । यह देह मे स्थित जीव के सैमान संव जगद मौजूद हैं. । कोई वस्तु या स्थान ऐसा नहीं है जहाँ सत्य नहों। जिस वस्तु में सत्य नहीं हैं, वह वस्तु किसी कॉम की नहीं रहती ओर उसका नाम भी बदल जाता है। जेसे सूयं में सत्य वस्तु प्रकाश' है । यदि सूथ मे से प्रकाश निकल जाय, तो उसे सूयं कोहं न कदेगो । दूध से सत्य वस्तु धृत! ह । यदि धृत निकल जाय सों उसे दृध काद्‌ न कहेगा । तात्पयं यह है कि सत्य उस स्वाभाविक ओर वास्तविक वस्तु फा नाम हैं, जिसके होने पर किसी बस्तु विचार काय आदि के नाम, रूप तथा गुर में परिवर्तत न हो सके और जिसके ন रहने पर थे तीनो या इनमें से कुछ बाते यदल जाएँ. । (১. _सभावतः मनुष्य के हृदय में एक से एक उत्तम शुण विद्यमान ६। उत्तम शुण सीखने के लिए भनुष्य को कहीं जाना नहीं पड़ता कै तो सवंधा स्वाभाविक होते हैं। थादि मनुष्य कुसंग में पद कर बुरी




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