जैन आचार्य श्री जवाहरलाल जी की जीवनी | Jain Acharya Sharee Jawaharlal Ji Ki Jeevani

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Jain Acharya Sharee Jawaharlal Ji Ki Jeevani  by शोभाचन्द्र भारिल्ल - Shobha Chandra Bharilla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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के सदस्यों ने उसे देंखकर छुपा लेने की स्वीकृति दे दी । यहाँ तक तो संतोषजनक शीघ्रतो से कांसे चलता रहा। . इतनी विशाल जीवनी के लिखने में शीघ्रवा करने पर भी काफ़ी समय लग गया था श्रोर हसी बीच पूज्यश्नी का स्वगवास मी दो गया था, इन दोनों कारणों से पूज्यश्री के भक्त श्ताकगण जल्दी से जल्दी उनकी जीवनी पढ़ना चाहते थे । हृम- स्वयं भी यही चाहते थे कि शीघ्र ही पार्क के द्ाथ में जोवनी पहुँचा दें । इस शीघ्रता के ज़याल से हमने जीवनी को दिल्‍ली सें छुपाने का श्राय्ोजत किया । मगर कहावत चरितार्थ हुई--चोबेजी छुब्बे बनने चले ओर रह्द गये दुबे दी ।! प्रथम तो-विश्वयुद्ध के कारण कागजों की बेहद कमी हो गई और कार्यकर्ताओं को मिलना कठिन ही गया, तिस पर प्रेसों का कार्य इतना बढ़ गया कि उन्हें काम सुग्ताना कठिन हौ गया। जीवनी जल्दी छाप देने के लिए हम तकाज्ञो पर तकाज्ने करते रहे, मगर खेद दे कि दमारे घहाजें किसी काम न आ्राये । बाद में देश का विभाजन होने के अनन्‍्तर देहंलछी में लम्बे श्रं पकं घौर शान्ति वनी रही रौर इस कारण भी काम होने मे वि्लस्व दो गथा! दसी धैमे पं० पूर्ण चन्द्रजी दक नयायतीर्थ को प्रफ-संशोधन के लिए देहली भेजना पढ़ा.। वै इहा कुदं दिनो হই सौर जीवनी का अधिकांश भाग छुए भी गया। सगर बीच में छुपाई का काम रुक जाने से-चे- वापिस लौट श्राये ध्रौर श्रगला भाग दुपने में फिर देरी हो गई । इस प्रकार जीवनी के. दुपने में धराय प्रौर ध्राशातीतः विज्ञम्व हो गया है। उत्सुक और प्रेमी पाठकों से इसके लिए हमे छ्षमा-प्रार्थवा- करते हैं । हमारे स्वयं करने का काम होता तो हस अपने सभी कार्य छोढ़ कर इसे सर्वप्रथम पूर्ण करते । मगर लाचारी थी । प्रेस श्रपना था नहीं । तकाजा करने के सिवाय और कोई उपाय ` नदीं था । आशा दे इस विवशता-जन्य विल्लम्ब के लिए पाठक क्षसा प्रदान करंगे | क ॐ जीचनी का यह प्रथम भाग है । হলল पूख्यश्री के वाल्यकाल से लेकर श्रन्तिम समय तक का विवरण चौमासों के क्रम से दिया गया है। वर्ष-क्रम से जीवनी लिखना विशेष उपयोगी इस कारण समझा गया कि इस शैली से लिखी इद जीवनी में ब्योरे की सभी घातों का समावैश हो जाता है । पाठ स्वयं देखेंगे कि पज्यश्नरी की यह जीवनी, केवल उनही জীবনী হী नहीं है, किन्तु पूज्यश्री हुकमीचंद्रजी महाराज के सम्प्रदाय का पचास वर्ष का इतिहास दे | इसमें सम्प्रदाय संबंधी मुख्य-्मुख्य सभी विषय थआा गये हैं ओर साथ ही समग्र-स्थानक-वासी समाज से संबंध रखने चाली बातों का भी यथास्थान समावेश कर दिया गया है । जीवनी में एक प्रकरण श्रद्धान्नलियों का है, एज्यश्नी का विद्ारक्षेत्र बहुत विस्तृत रहा है । सारवाड़ झोर सालवा तो झापके सुख्य ज्षेत्र थे ही आपने महाराष्ट्र, व॑बवई देदली, जमना पार, गुजरात, काठियावाडू, आ्रादि दूर-दूर के সইহা में विहार किया था। आप अपने प्रमावरु उपदेशों के कारण झप्तंख्य ना-नारियों की श्रद्धा-सक्ति के पातन्न बने हैं । ऐसी हालत में आपके प्रशंसहों की संख्या बहुत अधिक होना स्वाभाविक हे । परिणामस्वरूप हमारे पास श्रद्धान्नलियों इतनी उवादा आई की यदि उन प्तब को स्थान दिया जावा तो प्रन्य रौर वहत मोटा वन जावा । श्रवएुव स्थानाभावङके कारण पिन लेखकों की धद्धान्जलि हम नदीं ध्रङाशित करसे, उनके प्रति चनापर्थ ই। जीवनी के घन्ठ में कुछ परिशिप्ट दिये गये हैँ । उनका विशेष संबंध तर्पय অন্ত্রের হয घाथ ऐ। तेरापंवी भाईयों ने जिन অন্বাআাঁ ক িচ্ব্ লী লনাব্রতহমী হাহ ই, उन वयां #




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