गुरुकुल पत्रिका | Gurukul Patrikaa

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Book Image : गुरुकुल पत्रिका  - Gurukul Patrikaa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२००६ ते पर पदस्थित रहा न कि नरसंहार पर ) हमारी क्भ्यता का श्रभ्युदक तथा विकास ऐसे स्थानों में हुआ, जहा उस के विकास में कोई बाधाएँ नहीं थी. जो प्रकृति की परम पवित्रता से सम्परिवेशित थे, जो प्राजके नगरों के पमान क्रत्रिम जीवन की धूर्तता तथा नेतिक पतन की दुर्वासना से--नाममात्र को शिक्षित समुदायान्तगत-श्रश्टता तथा निलंज्ज व्यवहार- परायणता से सुरक्तित श्रोर निलिप्त थे । वहां छात्र केवी शिक्षा पाते भे? वहा व्यवहारिक शान की शिक्षा मिलती थी, णहा ग्राज एक कालेज का विद्यार्थी परीक्षा में अस्पष्ट उत्तर देने या प्रतियोगिता - मूनक परीक्षाओं में खान प्राम कर लेने को योग्यता भर ही रखता है । अ्रतः छु्रों की सख्या का ही मह- त्व विस्तृत होता जा रहा है। नद्या वह विद्यालयों में सर्वोच्च गुण मम्पन्न शिक्षा से विस्तुत, वातावरण की रचना के योग्य होकर, प्रतिभातमत्न, तर्क विवेक तथा न्यायशक्ति से सुदृढ़, श्राचरण में पत्रित्र, कार्यक्षम साहसी, बलवान्‌ तथा आत्मनिरभर निकलता था, बढ़ा आज का विद्यार्थी-वातावरण किसी अ्रमानुषिक कार्य को दृष्टि करता रहता है। देखिए, एक दवा पस्तु के दोनों ह पक्रोण में कितना भेद अतिव्याप्त है? प्रश्न उठता दे कि क्‍या अत्र श्ाशा नहीं है ? क्या वह आश्चर्यजनक-प्रणाली लुप्त हो गई ? मै कहूंगा कि नहीं, वह সন भी जीवित है। परन्तु हा, हमने समय के अनुकूल ही उम्तकी रूपरेखा को संवारना दोगा | शान्ति निकेतन कौ विश्वभारती-ष्टश शिक्षा संज्ाओं ने हमारे सास्कृतिक-निमाण के श्रङ्ग विरोष के विकाश के हेतु अश्रविस्मरणीय कार्य किया है। गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय-सटश अल्पसंख्यक- शिक्षणस्थानों ने विद्यार्थी नीवन के आध्यात्मिक-श्रा- - दर्शों को पूर्ण करने में तथा उन पूर्ण आदशों' की व्यवहारिक काय पद्धति के रूप में संपरणित करने का संस्कृति के नवनिर्मांय के लिए शिक्षांलयों की रूपरेखा जो वर्चस्वतेजसमुब्ज्यल कांय किया है, भारत उसका ऋणो तो होना द्वी चाहिए, श्रपितु उसके आदर्शा का अनुमार्गी मी होना दो चाहिए, क्योंकि इन्हीं-सहश' भारत के आश्रमस्थ-विद्यालयों ने भारत के तास्कृतिक उत्तराधिका र को जीवित रखा है , लिस प्रकार मनुष्य- स्मृति किसी भी श्रमूल्य ज्ञान को शञावश्यक-समय क्र लिए मुरक्धित रखती है, उसी प्रकार, यदि हमार देश में ऐसे विद्यालयों का बहुमूल्य होवे तो जाति के उत्तराधिकार के श्रद्वितीय भाग की, जिसको हम संस्कृति कहते हें, अ्रद्लुएण बनाया जा सकेगा किसी भी जाति की प्रतिभा का वास्तविक मूल्य उसके व्यवद्वारों की सफलता द्वारा ही निश्चित किया जा सकता है। भारत का हृदय अ्रभी भी जीवित है, जिसमे ससर्कृति प्रगति स्पन्दित हो ही रही है | इमें दिन-प्रति- दिन इसी आरवश्यक्रता का अनुभव हो रद्दा है। कि किस प्रकार अपने देश का सस्कृति को वैदिक काल के स्वण॒युग के समान दिगन्तोज्ज्वल कर दिया जाय | अमी एक प्रश्न है, जिसका उत्तर भारत के प्रत्येक व्यक्तिने देना है, विशेषतः हमारे बालकों ने बह्मचारियों ने, विद्यार्थीसमुदायने, आगामी नागरिकों ने। उस उत्तर का स्वरूप भी निश्चित है. जो उनके जंवन चरित्र में अकित की हुई विचार धारा के श्रनु- सार हो नर्शित किया जायेगा, क्योंकि यह अक्षरशः सत्य है कि जेता बीज बोया जायगा, तदनुसार ही फल की प्राप्ति होवेगी | यदि शिक्षा के सुगठित-श्रज्ञों को व्यवहारिक-आचार श्रोर ज्ञान से सम्मिश्रित करगे तो कौनसी ऐमी शक्ति है, जो दुःखमव फल का निर्णय करगी ? हा इपना श्रौर कि हम নী प्राचीन परम्परा श्रवद्देशना ही करें ओर न केवल आधुनिक-विकाश- वाद को ही सराहें जहा इमारों प्रार्चीोन-शिक्षान्प्रणाली हमें सच्चरित्रता, सत्ता, मेंत्री, अरागढ घपरायण ता, দল




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