सांख्यदर्शन का इतिहास | Sankhyadarshan Ka Itihas

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Sankhyadarshan Ka Itihas by पं. उदयवीर शास्त्री - Pt. Udayveer Sastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ सांस्यदशन का इतिहासं वाचस्पति को चुना | उस समय तह ये एम. ए. उनीर्ण नहीं हुए थे, इसश्रेखी में पढ़ रहे थे। यह कार्य यथासमय सम्पन्न होगया | सम्मेलन के अवसर पर निबन्ध को सुनाने क लिये मैंने अपने एक अन्य शिष्य श्रो गोपालक्ृष्ण शर्मा बी. ए. लायलपुरनिबासी को कहा। उन दिनों ये लाहौर के गवर्नमेण्ट कालिज में एम. ए, श्रेणी में पढ़ते थे, और मेरे पास अतिरिक्त समय में संस्कृत साहित्य तथा दर्शन का अभ्यास करते थे । उन्डनि इस कायं को सहषे स्वीकार किया, और यथासमय यह्‌ निबन्ध सम्मेलन में पदा गया} उस वषं के सम्मेलन की विवरण पुस्तक के द्वितीय भाग में यह मुद्रित होचुका है । इस सम्मेलन का एक संस्मरण और लिय्र देता चाहता हूं। अखिल भारतीय प्राच्य परिषद्‌ फा यक पञ्चम सम्मेलन था, इस के अ्रध्यक्ष थे--ऋलकत्तानित्रासी महामद्दोपाध्याय श्री डा० हरप्रसाद जो शास्त्री । शास्त्री जी से समय लेकर विशेष रूप से में उनके निवासस्थान पर जाकर मिला। उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक मेरे विचार सुनने के लिये पर्याप्त समय दिया। हमारे वारत्तालाप में कठिनता यह हुई, कि मैं इग्लिश नहीं बोल सकता था, ओर उन्हें हिन्दी बोलन में अति कष्ट होता था, तब हमारे विचारों का आदान प्रदान संस्कृत के द्वार/ ही हुआ | उन्होंने मेरे विचारों को बड़ो शान्ति ओर पेय के साथ छुना, और वित्रादभ्रस्त विषयों पर आधुनिक विचार धारा के अनुसार खुली आलोचना की। तब यथाशक्य सच्तेप में मेंने उन सब आलोचनाओं का उत्तर दिया, बह सब सुनकर शास्त्री जी ने जो कुड्ध शब्द उस समय फहे वे आजतक मुझे उसी तरह याद हैं | उन्होंने कह्ा--शास्त्रित्‌! अ्रतिभयंकरं एतत्‌! । अर्थात तुम्द्दारे विचार बड़े डराबने हैं | संभव है, आज भी अनेक विद्वानों को ये विचार डराबने लगें, पर विद्वानों से मेरा यही निवेदन है, कि इनकी तथ्यता की ओर ध्यान देना चाहिये, तब भय दूर होसकता है। यही उत्तर मैंने उल समय महामहोपाध्याय जी को दिया था। सम्मेलन के अनन्तर बहुत शीघ्र मुके अकरमात्‌ लाहौर छोड़ना पढ़ा, जिसका संक्रेत अभी पहले में कर चका हूँ। उसके बाद पूरे सोलह बर्ष तक मैं अपने जीवन को ऐसी स्थिति में व्यवस्थित न करसका, जहां इस अन्धथ को पूरा करने की अनुकूलता होसकती | जिस पृष्ठ और जिस पंक्ति तक वह लाहौर सम्मेलन से पू लिखा जचु था, वदो तक पड़ा रहगया। इस भीच बहुत उथल पुथल हुईं । जो विचार उस समय तक लिपिबद्ध होगये थे, बे तो उसी तरह सुरक्षित रह, पर मस्तिष्क की निधि बहुत द्र सरक चुकी थी। अन्ततः सोलद वर्ष के अनन्त्र फिर लाहौर ज्ञाने 41 सुयोग बन गया । इस अवसरको लाने में मेरे शिष्य प० बाचस्पति एम्‌. ए.) षी. एससी, विद्यावाचस्पति कामी बङ्गा हाय था) सन्‌ १६४५ के जनवरी मास के प्रारम्भ में दी में लाहोर पहुंचा। इस समय मैं इसी निश्चय के साथ वहां गया था, कि सर्वप्रथम इस प्रन्थ को लिपियद्ध करूँगा। इस अवसर पर मेरे लाहौर पहुँचने और इस प्रन्य के लिये कार्य करने के मुख्य आधार




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