सिंह सेनापति | Singh Senapati

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Singh Senapati by राहुल सांकृत्यायन - Rahul Sankrityayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तच्तशिला में ः श्दे “स्तो तात ! तुम चीर-पुत्र हो । अच्छा, मेरे भाई महाली ने तुम्हें क्‍्या- क्या शिक्षा दी है ?” *पाचार्य ! मैंने मुष्टि-युद्ध सीखा है, मल्न-युद्ध, खड्-युद्ध जानता हूँ । घनुप में शब्दू-वेघ, चल-वेध जानता हूँ । श्रश्व, रथ, गज, पदाति के आ्राक्र- मण-प्रत्याक्मण के कौशलों तथा व्यूह और ढुग की रचना का ज्ञान मेरा प्रारंभिक है ।”” “तो तात ] ठुम १८ साल की आयु के अनुरूप जितना ज्ञान होना चाहिये, इससे ज्यादा सीख चुके हो । किन्दु वत्स ! विद्या का अन्त नहीं है, आर न अन्त होगा, वह दिन पर दिन बढ़ती ही जायगी । हमारे पास पूर्व के ही नहीं पश्चिम के भी विद्यार्थी ्राते हैं । यहाँ पश्चिम गंघार, कम्बोज, पर्श [ पारस ] पवेरू [ वादुलं ] और यवन तक के शिक्षार्थी हैं । हमारे ये दूर के छात्र सिंफ़॑ छात्र ही नहीं हैं; बल्कि इनसे हम कई नये युद्ध-कौशल सीखते हैं । झ्रमी पाशंव शास [ शाह ] को यवन चीरों ने जो करारी शिकस्त दी है, उसमें उन्होंने एक विल्कुल नये दाँव-पेँंच इस्तेमाल किये हैं । किन्तु, यह सामुद्रिक युद्ध था, इसलिए हमारे और तुम्हारे गण के लिये उसका महत्त्व सिफ़े विद्या-विलास- मात्र है । किन्तु, वत्स ! इससे यह तो समभ सकते हो कि युद्ध-बिद्या दिन पर दिन चढ़ रही है । दम तक्षशिलावासियों को इस बढ़ते हुए छोटे से छोटे ज्ञान की भी भारी पर्वाह रहती है । यदि हम बासी ज्ञान को ही सिखलाते रहें, तो चक्नशिला कितने दिनों तक श्रपने स्थान को क्रायम रख सकेगी ? और रसके लिये तक्तशिला ने उपयुक्त स्थान मी पाया है । पूर्व में जितना दूर वेराली ई, उतना हो पच्छिम जाने पर हम पाशंव शास की राजघानी--पशु- उरस-पार कर जायेंगे । यवन उससे बहुत दूर हैं, किन्ठ यवन हमारे मित्र ६ 1--शन्नु का शन्ु मित्र होता है । यवनों ने शास को घुरी हार दी, जिस वच्छ पद समाचार हमारे इस पूर्व यंधार में पहुँचा, उस दिन सब जगह खुशियाँ मनाई राई । हमें दफ़सोस है, हमारा पश्चिम गंघधार--महार्सिघु के उस पार का मदेश--दब भी पार्शवों के हाथ में है । यद्दी नहीं, यदि यवनों से दार न साई होती, तो वदद हमारी तन्शिला की शोर घढ़नेवाले थे ।” “श्राचार्य ! जो भय तक्षशिला को पश्चिम से है,.वद्दी भय देशालो




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